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दुर्मिल सवैया छंद

नहि भेद लिखे कछु वेद कवी सब गाल बजावत मंचहि पे
निज वेशहि की परवाह करें बस ध्यान धरें धन संचहि पे
अब ब्रम्ह बने सूतहि जब है सब ज्ञान बखान विरंचहि पे
कलि कौतुक देख हसे सुर है गुरु बैठत है अब बेंचहि पे

कलिकाल धरा विकराल बढ़ा सुत मातु पिता नहि मानत है
धन की महिमा सब ओर सखे धनही सबका पहिचानत है
घर की नहि नारिहि मान करे ललचाय पराय अमानत है
सनदोह सहोदर मोह नही अब दारहि का सब जानत है


चिदानन्द शुक्ल "सनदोह"

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Comment by रविकर on November 19, 2012 at 10:01am

बहुत बढ़िया |
आभार आदरणीय ||

Comment by seema agrawal on October 25, 2012 at 11:13am

जी सौरभ जी  पढ़ा तो था पर उस समय बात स्पष्ट नहीं हो सकी थी इसलिए पुनः प्रश्न किया था ........ खैर निवेदन क्षमा सहित था इसलिए बच गयी 

अब चिदानंद जी निश्चित करेंगे  क्या उचित है (मैं क्यों डांट खाऊँ )


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 25, 2012 at 10:53am

इसी लहजे में शब्दों की अक्सर आखिरी दीर्घ मात्राओं का ह्रस्व होना यानि गुरु का लघु मान लिया जाना चलता है. लेकिन इसीका विलोम दिक्कत का कारण बन जाता है, जिस पर सीमाजी ने प्रश्न किया है. मैं चिदानन्द जी के छंद में इस कवि को कवी रूप में देखा था. लेकिन आगे स्पष्ट होगा सोच कर आगे निकल गया था.  -- विश्वास है, आपने मेरे इस कहे को पढ़ा है, सीमाजी !

सादर

Comment by seema agrawal on October 25, 2012 at 10:43am

क्षमा सहित निवेदन  करूंगी सौरभ जी यहाँ कवी  न तो आंचलिक  रूप में प्रयुक्त हुआ है और न ही यह अव्यय है ..सिर्फ मात्राओं कि गिनती पूरी करने के लिए कवि को कवी कह कर बात निपटा दी गयी है .......


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 25, 2012 at 10:11am

//यहाँ पर कवी शब्द का जो प्रयोग किया है वह मात्रा गणना कि जरूरत है //

ऐसा करना छांदसिक रचनाओं, विशेष कर वर्ण आवृति वाली रचनाओं, की ऐसी विवशता है जिससे पार पाने का प्रयास होना ही चाहिये. लेकिन खड़ी हिन्दी के शब्दों की अव्ययी प्रकृति के कारण ऐसा अक्सर नहीं हो पाता. यही कारण है कि सवैया जैसे छंदों में आंचलिक शब्दों या प्रारूप शब्दों का विशद प्रयोग होता है. इसी लहजे में शब्दों की अक्सर आखिरी दीर्घ मात्राओं का ह्रस्व होना यानि गुरु का लघु मान लिया जाना चलता है.  लेकिन इसीका विलोम दिक्कत का कारण बन जाता है, जिस पर सीमाजी ने प्रश्न किया है. मैं चिदानन्द जी के छंद में इस कवि को कवी रूप में देखा था. लेकिन आगे स्पष्ट होगा सोच कर आगे निकल गया था.  इसी तरह, कारक की विभक्तियों के एकवर्णी स्वरूपों का लघु मान लिया जाना इसी संदर्भ में स्वीकार्य हुआ करता है. यथा, ने, का, की, को, पे, में आदि को आवश्यकता होने पर लघु रूप में गिना जाना.

हालाँकि ऐसा कहना किसी शाब्दिक अनगढ़पन को मेरा अनुमोदन कत्तई नहीं है.

सधन्यवाद

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 25, 2012 at 9:44am

बहुत सुन्दर अभ्व्यक्ति के दुर्मिल सवैया छंदों का प्रतुतिकरण, हार्दिक बधाई | विजय दशमी दिवस की भी हार्दिक शुभ कामनाए 

Comment by Chidanand Shukla on October 25, 2012 at 9:31am

आदरणीया राजेश कुमारी जी बहुत बहुत आभार 

Comment by Chidanand Shukla on October 25, 2012 at 9:31am

आदरणीय बागी जी बहुत बहुत आभार रचना कि प्रसंशा के लिए और आप को विजया दशमी कि हार्दिक शुभ कामनाएं 

 

Comment by Chidanand Shukla on October 25, 2012 at 9:30am

आदरणीया सीमा अग्रवाल जी यहाँ पर कवी शब्द का जो प्रयोग किया है वह मात्रा गणना कि जरूरत है बहुत बहुत आभार और जहां तक सौरभ पाण्डेय जी कि बात है वह मैंने गौर किया और सुधर के साथ पुनः प्रस्तुत किया है कमेन्ट के रूप में 

 

Comment by seema agrawal on October 24, 2012 at 10:02pm

आपकी छंद प्रस्तुतियां अधिकांशतः निर्दोष ही रहती हैं ऐसा मेरा अनुभव रहा है पर चिदानंद जी सौरभ जी की निगाह से कुछ भी गलत छूट नहीं सकता वो शुद्ध हो कर ही आगे बढ़ता है 
एक आग्रह और कवी या कवि ?
बहुत सुन्दर और सटीक भाव व्यक्त किये हैं आपने आज की  दशा के सन्दर्भ में ......
हार्दिक बधाई 

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