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तीन कह-मुकरियां -----[नवल का नव प्रयोग ]


१.
वह जब आती मन को भाती,
सबके जीवन को हर्षाती ,
कभी कभी देती है तरसा,
क्यों सखा सजनी, ना 'बरसा'.

२.
वो जब आती मैं सो जाता ,
गहरे सपनों में खो जाता ,
उस संग हो जाता 'रिंद'
क्यों सखा सजनी, ना नींद
 ३.
सुरूर उसका जब छाता है .
रोम रोम सा खिल जाता है.
उसके आगे सब खराब .
क्यों सखा सजनी,ना शराब.

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Comment

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Comment by Naval Kishor Soni on August 24, 2012 at 11:01am

रेखा जोशी जी प्रोत्साहन के लिए आपका शुक्रिया .

Comment by Naval Kishor Soni on August 24, 2012 at 11:00am

सीमा जी अपनी प्रतिक्रियाएं देने के लिए धन्यवाद. जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसमें अपार सुधर की संभावनाएं होती है. मैं कोशिश करूंगा कि आगे यह  प्रयोग  लेखन की कसौटियों पर खरा उतरें .

Comment by Rekha Joshi on August 23, 2012 at 9:02pm

आपका प्रयोग सफल रहा नवल जी ,बढ़िया कह मुकरिया ,हार्दिक बधाई 

Comment by seema agrawal on August 23, 2012 at 8:13pm

कभी कभी देती है तरसा,
क्यों सखा सजनी, ना 'बरसा'........ये कुछ जबरदस्ती का बनाया हुआ तुक है या प्रयोग 

उस संग हो जाता 'रिंद'
क्यों सखा सजनी, ना नींद.....रिंद और नींद  का भी तुक कुछ समझ नहीं आया 

उसके आगे सब खराब .
क्यों सखा सजनी,ना शराब.......यहाँ मात्राओं की गडबड दिख रही है 

नवल प्रयोग के चक्कर में  आपने शिल्प को बिलकुल ही नज़रंदाज़ कर दिया नवल जी 

Comment by Naval Kishor Soni on August 23, 2012 at 5:13pm

बहुत बहुत शुक्रिया आपका ! मुकरियों में अब तक सखी की सखी से साजन के बारे में ही बात होती थी . यहाँ सखा अपने सखा से सजनी के बारे में बात कर रहे है .यह है नव प्रयोग है सर.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 23, 2012 at 3:36pm
कह मुकरियाँ अच्छी लगी -हार्दिक बधाई 
पर इसमे नव प्रयोग की बात समझ न आई   

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