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घनाक्षरी :

शीश हिमगिरि बना, पांव धोए सिंधु घना,

माँ ने सदा वीर जना, देश को प्रणाम है |

ब्रम्हचर्य जहाँ कसे, आर्यावर्त कहें इसे,

चार धाम जहाँ बसे, देश को प्रणाम है |

वाणी में है रस भरा, शस्य श्यामला जो धरा,

ऋतु रंग हरा-भरा, देश को प्रणाम है |

गंगा-यमुना हैं जहाँ, नर्मदा का नेह वहाँ,

पूजें कोटि देव यहाँ, देश को प्रणाम है ||

--अम्बरीष श्रीवास्तव

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on August 13, 2012 at 4:00pm

कथ्य और शिल्प की दृष्टि से निर्दोष और उच्चकोटि के छंद कैसे रचे जाते हैं यह कोई आपसे सीखे. आपकी यह घनाक्षरी पढ़ कर मन गदगद हो उठा आदरणीय अम्बरीष भाई जी, मेरा हार्दिक साधुवाद स्वीकारे करें.

Comment by Er. Ambarish Srivastava on August 13, 2012 at 2:34pm

स्वागत है  कुमार गौरव जी ! हार्दिक धन्यवाद अनुज ! सस्नेह

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 13, 2012 at 12:50pm
आदरणीय ज्येष्ठ भ्राता श्री, अत्यंत सुंदर रचना के लिए अनुज की बधाई स्वीकार हो।
Comment by Er. Ambarish Srivastava on August 13, 2012 at 11:50am

स्वागत है आदरणीय डॉ० सूर्या बाली जी ! आपकी मृदुल सराहना व शुभकामना के लिए हार्दिक आभार आदरणीय ! जय हिंद! जय भारत! जय ओ बी ओ !

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on August 13, 2012 at 9:20am

अम्बरीष भाई बहुत ही सुंदर वर्णन किया इस देश का आपने इस घनाक्षरी के माध्यम से । कोटि कोटि बधाइयाँ स्वीकार करें !! ऐसे ही आपकी लेखनी का प्रवाह अविरल बहता रहे !! साभार !

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