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जिस प्रकार के भवन की कल्पना बादशाह ने की थी यह भवन उससे भी कहीं अधिक सुन्दर बना था, जिसकी भव्यता देखकर बादशाह की आँखें चौंधिया सी गईं थीं. चहुँ ओर भवन निर्माण करने वाले शिल्पकार की मुक्तकंठ से प्रशंसा हो रही थी. जिसे सुनकर शिल्पकार भी फूला नहीं समा रहा था. लेकिन तभी अचानक बादशाह ने शिल्पकार के दोनों हाथ काट देने का आदेश दे दिया ताकि शिल्पकार पुन: ऐसी शानदार इमारत का निर्माण न कर सके. सुबह होते ही शिल्पकार के दोनों हाथ काट दिए गए. लेकिन अपने कटे हाथ देख शिल्पकार जोर जोर से ठहाके मार कर हँसने लगा, उसके ठहाके रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. यह हरकत देख कर वहां उपस्थित भीड़ मानो सकते में आ गई. एक व्यक्ति ने आगे बढ़कर पूछा:
"दोनों हाथ गंवाकर भी हँस रहे हो, पागल हो गए हो क्या ?"
"पागल मैं नहीं तुम्हारा बादशाह हो गया है ?
"वो कैसे ?"
"वो मूर्ख शायद ये भूल गया कि शिल्प मेरे हाथों में नहीं, मेरी आत्मा में बसता है."

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Comment

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 4:08pm

आदरणीय सौरभ भाई जी आप जैसे विद्वान् की शाबाशी मेरे लिए किसी इनाम से कम नहीं, आपका दिल से आभार.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 4:06pm

सादर धन्यवाद आदरणीय अविनाश बागडे जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 4:06pm

योगी सारस्वत जी दिल से आभार.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 4:06pm

सादर धन्यवाद रेखा जोशी साहिबा.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 4:05pm

लघुकथा पसंद करने के लिए दिल से धयवाद आदरणीय भ्रमर जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 4:04pm

सादर धन्यवाद उमाशकर मिश्र भाई जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 4:03pm

धन्यवाद राज भाई.  


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 4:03pm

सादर धन्यवाद आदरणीय दवे साहिब.

Comment by MARKAND DAVE. on October 12, 2012 at 4:00pm

"पागल मैं नहीं तुम्हारा बादशाह हो गया है ?

आदरणीय श्रीयोगराजजी, सत्य वचन कहा आपने, केन्द्रस्थ राजवी भी आजकल पगला गए लगते हैं..!

बहुत सुंदर कथा,बधाई स्वीकार करें ।

 

Comment by Raj Tomar on July 21, 2012 at 6:28pm

वाह सर जी.. क्या बात कही. :)

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