For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

दोहा सलिला: दोहों की दीपावली, अलंकार के संग..... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                       

दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.....

संजीव 'सलिल'
*
दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.
बिम्ब भाव रस कथ्य के, पंचतत्व नवरंग..
*
दिया दिया लेकिन नहीं, दी बाती औ' तेल.
तोड़ न उजियारा सका, अंधकार की जेल..   -यमक
*
गृहलक्ष्मी का रूप तज, हुई पटाखा नार.     -अपन्हुति
लोग पटाखा खरीदें, तो क्यों हो  बेजार?.    -यमक,
*
मुस्कानों की फुलझड़ी, मदिर नयन के बाण.  -अपन्हुति
जला फुलझड़ी चलाती, प्रिय कैसे हो तरण?.   -यमक
*
दीप जले या धरा पर, तारे जुड़े अनेक.
तम की कारा काटने, जाग्रत किये विवेक..      -संदेह
*
गृहलक्ष्मी का रूप लख, मैया आतीं याद.
वही करधनी चाबियाँ, परंपरा मर्याद..            -स्मरण
*
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.          -भ्रांतिमान
लगे चाँद सा प्रियामुख, दिल पर करता राज..  -उपमा
*
दीप-दीप्ति दीपित द्युति, दीपशिखा दो देख. -वृत्यानुप्रास
जला पतंगा जान दी, पर न हुआ कुछ लेख.. -छेकानुप्रास
*
दिननाथ ने शुचि साँझ को, फिर प्रीत का उपहार.
दीपक दिया जो झलक रवि की, ले हरे अंधियार.. -श्रुत्यानुप्रास
अन्त्यानुप्रास हर दोहे के समपदांत में स्वयमेव होता है.
*
लक्ष्मी को लक्ष्मी मिली, नर-नारायण दूर.  -लाटानुप्रास
जो जन ऐसा देखते, आँखें रहते सूर..     
*
घर-घर में आनंद है, द्वार-द्वार पर हर्ष.      -पुनरुक्तिप्रकाश
प्रभु दीवाली ही रहे, वर दो पूरे वर्ष..
*
दीप जला ज्योतित हुए, अंतर्मन गृह-द्वार.   -श्लेष
चेहरे-चेहरे पर 'सलिल', आया नवल निखार..
*
रमा उमा से पूछतीं, भिक्षुक है किस द्वार?
उमा कहें बलि-द्वार पर, पहुंचा रहा गुहार..   -श्लेष वक्रोक्ति
*
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श.
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श?  - काकु वक्रोक्ति
*
मिले सुनार सुनार से, अलंकार के साथ.
चिंता की रेखाएँ शत, हैं स्वामी के माथ..  -पुनरुक्तवदाभास 

******************


Views: 1094

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by sanjiv verma 'salil' on November 7, 2011 at 9:29am

वक्रोक्ति : जब किसी व्यक्ति के एक अर्थ में कहे गये शब्द या वाक्य का कोई दूसरा व्यक्ति जान-बूझकर दूसरा अर्थ कल्पित करे. यह दूसरा अर्थ कल्पना श्लेष या काकु (कहे गये शब्दों का अन्य अर्थ) द्वारा संभव होता है.
श्लेष वक्रोक्ति : है पसु-पाल कहाँ सजनी!, जमुना तट धेनु चराय रहो री.
लक्ष्मी पूछती हैं 'पशु-पाल (शिव) कहाँ हैं?, पार्वती 'पशुपाल' शब्द का दूसरा अर्थ कल्पित कर उत्तर देती हैं पशुपाल (कृष्ण) यमुना तट पर गाय चरा रहा है.
काकु वक्रोक्ति : आये हू मधुमास के, प्रियतम अइहें नाहिं.
                      आये हू मधुमास के, प्रियतम अइहें नाहिं.
एक विरहणी : वसंत के आने पर भी प्रियतम नहीं आएंगे. दूसरी विरहणी : वसंत के आने पर भी प्रियतम नहीं आएंगे? अर्थात अवश्य आयेंगे.

Comment by sanjiv verma 'salil' on November 7, 2011 at 9:09am

आपकी रूचि स्वागतेय है.
भ्रांतिमान: जब सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान का भ्रम हो अर्थात  उपमेय को भूल से उपमान मान लिया जाए. यहाँ निश्चय है.
पेशी समझ माणिक्य को वह विहग देखो ले चला.

उत्प्रेक्षा : जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु मान लिया जाए या एक वस्तु में दूसरी वस्तु की सम्भावना की जाए. यहाँ अनिश्चय है.
नेत्र मानो कमल हैं. उत्प्रेक्षा की पहचान वाचक शब्द मनो, मनु, मनहुँ, जनु, सा, जैसा आदि .

मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.
मुझे यहाँ निश्चय की प्रतीति हुई इसलिए मैंने भ्रांतिमान अलंकर की उपस्थिति का नुमन किया.

इस सन्दर्भ में अन्य पाठकों के मत मिलें तो चर्चा रोचक और उपयोगी होगी.

Comment by आशीष यादव on November 6, 2011 at 10:15pm
आदरणीय आचार्य जी, आज आपसे से बहुत कुछ सिखने को मिला| आपने
बहुत सारी शंकाओं का समाधान कर दिया|

 

मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.

 

मुझे अभी भी इसमें का अलंकार समझ में नहीं आ रहा है|

 

 

प्रणाम 
Comment by sanjiv verma 'salil' on November 5, 2011 at 9:29pm

अपन्हुति, पुनरुक्तवदाभास ewam काकु वक्रोक्ति अलंकार के बारे जानकारी दें|
अपन्हुति : जब उपमेय का निषेध के उपमान का होना कहा जाए.
सुधा सुधा प्यारे नहीं, सुधा अहै सत्संग.
अमृत अमृत नहीं है, सत्संग ही अमृत है.
पुनरुक्त
वदाभास : जब अर्थ की पुनरुक्ति दिखाई देने पर भी पुनरुक्ति न हो.
दुलहा बना वसंत, बनी दुल्हन मन भायी.

एक बात जरा स्पष्ट करे की इस पंक्ति  में कौन सा अलंकार है,
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.          -भ्रांतिमान (ये आप ने लिखा है)
लेकिन मुझे यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार प्रतीत हो रहा है| शंका का उचित समाधान करें|

उत्प्रेक्षा : जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु मान लिया जाए.
नेत्र मानो कमल हैं.
वही शब्द फिर-फिर फिरे, अर्थ और ही और.
सो यमकालंकार है, भेद अनेकन ठौर..
रचना के सम्बन्ध में पाठक तभी पूछता है जब वह रचना से कहीं न कहीं जुड़ता है. आपके प्रश्न मेरे लिये पुरस्कार के समान हैं.
निम्न दोहों की प्रथम और द्वितीय पंक्तियों में कही गई बातों के बीच कोई तारतम्य ढूँढने में मैं असफल रहा. थोड़ा प्रकाश डालिए तो समझ सकूँ ---

तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.
धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..
यहाँ तलवार, कलम तथा पानी की धार की तेजी की चर्चा है कि तलवार की धार से कलम (शब्द) की धार अधिक तेज होती है जबकि पानी की धार की तेजी पतवार से ही अनुमानी जा सकती है. धार शब्द का प्रयोग तलवार की धार, शब्द की मारक शक्ति तथा पानी के बहाव के तेजी के विविधार्थों में किया गया है.
चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.
चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..
इस दोहे में 'चित' शब्द के दो अर्थों सीधा पटकना तथा चित्त का प्रयोग है. पहलवान दाँव का सफल प्रयोग कर स्पर्धी को चित पटक कर जीत गया किन्तु भव के पार तो तब जा सका जब प्रभु चरणों में चित लगाया.

खा ले व्यंजन गप्प से, बेपर गप्प न छोड़.
तोड़ नहीं वादा 'सलिल', ले सब जग से होड़..
गप्प=झट से, जल्दी से, झूठी बात.
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत.
डग-मग डग मग पर रहें, कर मंजिल से प्रीत..
यहाँ धोखा तथा डग मग को दो अर्थों में प्रयोग किया गया है.
कली छोड़कर फूल से, करता भँवरा प्रीत.
देख बे-कली कली की, बे-अकली तज मीत..
यहाँ कली और फूल के सामान्य अर्थ तो हैं ही, पुत्री और पुत्र के विशिष्टार्थ भी हैं. यहाँ समासोक्ति अलंकार है. कली की एकाधिक आवृत्ति एक अर्थ में होने से यमक भी है.
इन दोहों में दोनों पंक्तियाँ किसी एक प्रसंग से जुड़ी नहीं हैं.
अलंकारों के प्रयोग में दोनों पंक्तियों का एक प्रसंग से जुड़ा होना अनिवार्य होना मेरी जानकारी में नहीं है.

इस पंक्ति में --
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत..... धोकर खाने और धोखा खाने में कोई सामंजस्य नहीं लग रहा है. या फिर आप कुछ और कहना चाहते हैं ?

इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ--

सज न, सजन को सजा दे, सजा न पायें यार.

बरबस बरस न बरसने, दें दिलवर पर प्यार.. मुख्यतः "बरस" के प्रयोग का अर्थ नहीं समझ में आ रहा है.

आपसे सविनय निवेदन है कि उक्त पर प्रकाश डालें तो मैं भी दोहों का आनंद ले सकूँ.
इस पंक्ति में --
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत..... धोकर खाने और धोखा खाने में कोई सामंजस्य नहीं लग रहा है. या फिर आप कुछ और कहना चाहते हैं ?

इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ--

Comment by आशीष यादव on October 30, 2011 at 9:34pm

आदरणीय आचार्य जी, अलंकारों से सुसज्जित तमाम दोहें बहुत ही अच्छे लगे|

कृपया मुझे अपन्हुति, पुनरुक्तवदाभास ewam काकु वक्रोक्ति अलंकार के बारे जानकारी दें|
एक बात जरा स्पष्ट करे की इस पंक्ति  में कौन सा अलंकार है,
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.          -भ्रांतिमान (ये आप ने लिखा है)
लेकिन मुझे यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार प्रतीत हो रहा है| शंका का उचित समाधान करें|
आप का शिष्य 
आशीष यादव



कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
yesterday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service