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एक गीत: गरल पिया है... -- संजीव 'सलिल'

एक गीत:
गरल पिया है...

संजीव 'सलिल'
*

तुमने तो बस गरल पिया है...

तुम संतोष करे बैठे हो.
असंतोष को हमने पाला.
तुमने ज्यों का त्यों स्वीकारा.
हमने तम में दीपक बाला.
जैसा भी जब भी जो पाया
हमने जी भर उसे जिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...

हम जो ठानें वही करेंगे.
जग का क्या है? हँसी उड़ाये.
चाहे हमको पत्थर मारे
या प्रशस्ति के स्वर गुंजाये.
कलियों की रक्षा करने को
हमने पत्थर किया हिया है
तुमने तो बस गरल पिया है...

जड़ता वर तुम बने अहल्या.
विश्वामित्र बने हम चेतन.
तुमको गलियाँ रहीं लुभातीं
हमको भाया आत्म निकेतन.
लेना-देना तुम्हें न भाया.
हमने सुख-दुःख लिया-दिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...

हम विषधर के फन पर नाचे,
कभी इंद्र को रहे छकाते.
कभी सुनी मीरा की वाणी
सूर कभी कुछ रहे सुनाते.
जब-जब कोई मिला सुदामा
हमने तंदुल माँग लिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...

तुमने अपना हमें न माना.
तुमको साया लगा पराया.
हमने गैर न तुमको जाना.
हमें गैर लग सगा सुहाया..
तुम मनमोहन को सराहते.
हमको जनगण लगा पिया है.
तुमने तो बस गरल पिया है...
  ***
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 27, 2011 at 11:58pm

बिम्ब और संदर्भ के लिहाज से इस उत्कृष्ट नव-गीत पर मेरी सादर शुभकामनाएँ आचार्य सलिलजी. प्रत्येक बंद के इशारे संपुष्ट और अनुमोदनीय हैं. बहुत-बहुत बधाई.

अनुरोध : अंतिम बंद की पंक्ति ’तुम मनमोहन को सराहते’ को पुनः देखा जाय. आपने इस क्रम की पंक्तियों की दो दीर्घ से समाप्ति की है. अतः यहाँ गेयता की आवृति भिन्न हो रही है. मुझे समझाइयेगा.  सादर .. .

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