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सरकार नित ही वोट से मेरी बनी मगर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२
***
ये सच नहीं कि रूप  से वो भा गयी मुझे
बारात उस के वादों की बहका गयी मुझे।१।
*
सरकार नित ही वोट  से  मेरी बनी मगर
कीमत का भार डाल के दफना गई मुझे।२।
*
दंगो की आग दूर थी कहने को मीलों पर
रिश्तों की ढाल भेद  के  झुलसा गई मुझे।३।
*
अच्छे बहुत थे नित्य के यौवन में रत जगे
पर नींद ढलते काल में अब भा गयी मुझे।४।
*
नद झील ताल सिन्धु पे है तंज प्यास यूँ
दो एक बूँद ओस  की  नहला गयी मुझे।५।
*
मैं सत्य बोलकर भी न सच्चा रहा यहाँ
वो झूठ बोलकर के जो झुठला गयी मुझे।६।
*
बोला जिसे था खेल यहाँ सबने भाग्य का
गीता अकेले  कर्म  का  समझा गयी मुझे।७।
**
(८-१०-२३)
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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