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2×15

एक ताज़ा ग़ज़ल

मैं अक्सर पूछा करता हूँ कमरे की दीवारों से,
रातें कैसे दिखती होंगी अब तेरे चौबारों से.

सौंप के मेरे हाथों में ये दुनिया भर का पागलपन,
चुपके चुपके झाँक रहा है वो मेरे अशआरों से.

नफरत ,धोखा ,झूठे वादें और सियासत के सिक्के,
कितने लोगों को लूटा है तूने इन हथियारों से.

प्यार, सियासत, धोखेबाजी और विधाता की माया,
मानव जीवन घिरा हुआ है दुनिया में इन चारों से.

घोर अंधेरा करके घर में आशा का इक दीप जला,
ऐसे भी लड़ना पड़ता है कभी-कभी अँधियारों से.

सब लोगों के अपने मत है सब लोगों की अपनी सोच,
कोशिश करके बच के निकल जा इन बिजली के तारों से.

आँखों में सपने हो तो कैसे मंजिल मिल जाती है,
जलते पाँवों से पूछो या पूछो पथ-अंगारों से.

रोज नई एक बात सोचके तुझको भुलाने की कोशिश,
फूलों का रस जलाके जैसे खेल रहा मैं खारों से.

मौलिक और अप्रकाशित

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