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किसी भी रहरवाँ* को जुस्तजू होती है मंज़िल की (६८ )

(1222 1222 1222 1222 )

.

किसी भी रहरवाँ को जुस्तजू होती है मंज़िल की 

सफ़ीनों को मुसल्सल खोज रहती है जूँ साहिल की

**

न करना तोड़ने की कोशिश-ए-नाकाम इस दिल को

बड़ी मज़बूत दीवारें सनम हैं शीशा-ए-दिल की

**

किया तीर-ए-नज़र से वस्ल की शब में हमें बिस्मिल

नहीं मालूम क्या है आरज़ू इस बार क़ातिल की

**

सियाही पोतने से रोशनी का रंग नामुमकिन

बनाएगी तुम्हें बातिल ही संगत रोज़ बातिल* की 

**

क़ुबूलें वो ख़ुशी से या करे मंज़ूर बेमन से

ज़रूरत हर बशर को है मुहब्बत की सलासिल की 

**

हमारी ज़िंदगी में तुम क़दम रक्खो कि मत रक्खो

तुम्हारी याद से रोशन रहेगी शम'अ इस दिल की

**

किसी के काम आ जाये नहीं उनमें है वो कुव्वत

भला क्या ज़िंदगी होती है काहिल और जाहिल की

**

कहीं कोई न हो फ़ित्ना वतन में अम्न हो क़ायम

है ज़िम्मेदारी ये हर एक फ़ाज़िल और आदिल की 

**

'तुरंत ' आसाँ रहा कब है सफ़र अपना ज़माने में

जगह जो है सुख़न में वो बहुत मेहनत से हासिल की

**

गिरधारी सिंह 'तुरंत ' बीकानेरी |

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 15, 2020 at 2:04pm

आदरणीय  Samar kabeer साहेब  , आपके आशीर्वचनों  के आगे नतमस्तक हूँ | सादर आभार |

Comment by Samar kabeer on March 15, 2020 at 11:45am

जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

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