For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 40

कल से आगे ...........

‘‘इतनी देर लगा दी आने में ! जाओ मैं तुमसे बात नहीं करती।’’ यह चन्द्रनखा थी। उसका यौवन उसके भीतर हिलोरें मार रहा था। अब वह कोई कुछ वर्ष पहले वाली अल्हढ़ बालिका नहीं रही थी, पूर्णयौवना हो गयी थी। भाइयों का अंकुश उस पर था नहीं। एक भाई वर्षों से लंका से दूर था, दूसरा महाआलसी, सदैव नशे की सनक में रहता था और तीसरे को अपने धर्म-कर्म और राज-काज से ही अवकाश नहीं था। भाभियों को उसकी गतिविधियों का पता ही नहीं चलता था, चलता भी तो वह उनका अंकुश मानने को तत्पर ही कहाँ थी। मातामह और मातुल कभी लंका में तो कभी रावण के साथ। लंका में होते भी थे तो उनकी अपनी इतनी व्यस्ततायें होती थीं कि वे उस पर कोई ध्यान नहीं दे पाते थे। फिर वह सबकी विशेष दुलारी भी तो थी, उन्हें लगता ही नहीं था कि वह इतनी बड़ी हो गयी है कि उसकी यौवन की उमंगें उछाल मारने लगी हैं। फिर रक्षों में आर्यों की तरह कुमारियों पर कोई बंधन भी तो नहीं थे। वह स्वच्छंद रमण करती थी। इस समय वह कालकेय विद्युज्जिव्ह के साथ थी। उसे वह बहुत अच्छा लगता था। नित्य प्रासाद के बाहर के विशाल उपवन में उनका मिलन होता था।
‘‘कहाँ देर लगा दी, मैं तो समय से ही आया हूँ। देखो वृक्षों की छायायें उतनी ही बड़ी हैं अभी जितने कल थीं।’’
‘‘नहीं ! कल से बड़ी हो गयी हैं आज।’’
‘‘अच्छा चलो मान ली गलती, राजकुमारी जी ! देखो कान पकड़ लिये मैंने, अब तो माफ कर दो।’’
चन्द्रनखा दौड़ कर उससे लिपट गयी। फिर उसकी आँखों में झांकती हुयी कृत्रिम उपालम्भ के स्वर में बोली -
‘‘बड़े नाटकी हो। कभी क्रोध करने का मन हो तो करने ही नहीं देते।’’
‘‘अरे ! क्रोध करने के लिये तुम्हारे अधीन इतने अन्य व्यक्ति हैं तो, फिर इस सेवक पर क्रोध क्यों करना चाहती हो ? इसे बख्श दो ना मेरी प्यारी !’’ उसने चन्द्रनखा को बाहों में बाँध कर उठा लिया। चन्द्र नखा उसके गले में बाहें डाले अधर में झूलती रही फिर उसने उसके कंधे पर सिर रख दिया और आँखें बन्द कर बोली -
‘‘जाओ माफ कर दिया।’’
‘‘कहीं ऐसे माफ किया जाता है ?’’
‘‘लो !’’ चन्द्रनखा ने अपने अधर उसके अधरों पर रख दिये और एक प्रगाढ़ चुम्बन के बाद बोली - ‘‘प्रसन्न ?’’
‘‘इतना थोड़ा सा !’’ विद्युज्जिव्ह ने बच्चों की तरह ठुनकते हुये कहा।
‘‘हाँ ! अभी इतना सा ही। अभी तो सारी रात बाकी है।’’
‘‘अच्छा थोड़ा सा !’’
‘‘नहीं ! अच्छा नीचे उतारो मुझे। इतना कस कर पकड़ते हो कि सब पसलियाँ चरमरा जाती हैं।’’ रोष का अभिनय करती हुई बोली।
‘‘जैसा आदेश मेरे दिल की महारानी का !’’ अभिनय पूर्वक कहते हुये विद्युज्जिव्ह ने उसे नीचे उतार दिया। फिर एक पेड़ की ओर इशारा करता हुआ बोला- ‘‘आओ वहाँ बैठते हैं।’’
दोनों बैठ गये तो चन्द्रनखा उसकी गोद में सर रख कर लेट गयी। विद्युज्जिव्ह उसकी लटों से खेलने लगा -
‘‘ये कम्बख्त अलकें बादलों की भांति मेरे चन्दमा को बार-बार ढाँक क्यों लेती हैं ?’’
‘‘ये बादल नहीं नागिनें हैं। जिसे डस लेती हैं वह पानी भी नहीं माँग पाता।’’ चन्द्रनखा हँसते हुये बोली।
‘‘अच्छा ? लो मैंने इन्हें पकड़ कर किनारे कर दिया। इन्होंने तो नहीं डसा मुझे।’’
‘‘तुम्हारी तो पालतू हैं ये विद्युत, तुम्हें कैसे डसेंगी।’’ उसने फिर विद्युत के गले में बाहें डाल कर उसे झुकाया और फिर उसके अधरों पर अपने अधर रख दिये।
‘‘मन करता है कि अहोरात्र मैं ऐसे ही तुम्हारी बाहों में लेटी रहूँ।’’ चुम्बन के पश्चात वह बोली।
‘‘तो लेटी रहो, किसने रोका है।’’
‘‘घर तो जाना ही होगा। नहीं तो भाभियाँ व्यर्थ बातें सुनायेंगी।’’
‘‘तो आओ विवाह कर लें फिर चलो मेरे साथ रसातल लोक।’’
‘‘क्या ? ये चलने की बात कैसे की तुमने ?’’ चन्द्रनखा चैंक कर उठ बैठी।
‘‘हाँ चन्द्र ! जाना होगा। पिता का संदेशा आया है।’’
‘‘क्यों ? ऐसा क्या हो गया। तुम तो अभी बहुत दिनों तक रुकने वाले थे ?’’
‘‘क्यों तो अभी मुझे भी नहीं पता। किंतु कुछ बहुत आवश्यक है। संदेशवाहक ने कहा है कि पिता ने अविलम्ब बुलाया है और कारण उसे भी नहीं बताया, कहा कि मुझे ही बतायेंगे।’’
‘‘फिर ! जाकर कहीं आ ही नहीं पाये तुम ?’’
‘‘ऐसा कैसे हो सकता है ? विद्युत अपनी चन्द्र के बिना भला जी सकता है ?’’
‘‘नहीं ! मेरा मन जाने कैसा होने लगा है। मेरी धड़कनें बढ़ गयी हैं, देखो ...’’ उसने विद्युत का हाथ पकड़ कर अपने वक्ष पर रख लिया।’’
‘‘तो कह तो रहा हूँ कि चलो मेरे साथ।’’
‘‘पर बिना भाई की अनुमति के कैसे चल सकती हूँ ?’’
‘‘तुम्हारे भाई तो अन्तध्र्यान ही हो गये हैं। कितना तो समय हो गया आये ही नहीं।’’
‘‘हाँ ! आये भी थे तो बस कुछ ही रातों के लिये और तब वे स्वयं ही इतने उद्विग्न थे कि मेरी उनसे तुम्हारे विषय में बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई।’’
‘‘तो ऐसा करते हैं कि विवाह अभी कर लेते हैं, जब तुम्हारे भइया आ जायें तब उनसे अनुमति लेकर आ जाना मेरे पास।’’
‘‘कब जाना है तुम्हें ? तुम तो कह रहे हो कि पिता ने अविलम्ब बुलाया है ?’’
‘‘बस कल बीच परसों प्रातः निकल जाऊँगा। कल कुछ यहाँ की व्यवस्थायें ठीक करनी हैं।’’
‘‘फिर ! कल-कल में कैसे हो जायेगा विवाह ? वह भी भइया के बिना ! कितना प्यार करते हैं भइया मुझसे, कितनी ठेस लगेगी उन्हें ? कितनी धूम-धाम से करना चाहते हैं वे अपनी अकेली बहन का विवाह !’’
‘‘पर धूमधाम से करेंगे तो तब जब वे आयेंगे ? सुना है अब उन्होंने यमलोक की ओर रुख कर दिया है। उसके बाद जाने कहाँ-कहाँ विजय करते फिरेंगे।’’
‘‘सो तो है, फिर भी ...’’
‘‘अब भी फिर भी ? जब तक तुम्हारे भइया को फुर्सत मिलेगी तब तक हम हो जायेंगे बूढ़े। फिर हो चुका विवाह !’’ हँसते हुये विद्युत ने कहा।
‘‘कैसी बातें करते हो ? इस समय भी तुम्हें ठिठोली सूझ रही है।’’ चन्द्रनखा रुँआसी हो आई। उसने रोते-रोते विद्युत की छाती पर कई मुक्के जड़ दिये।
‘‘तो क्या करूँ मैं, पकड़ कर ला तो सकती नहीं भइया को।’’
‘‘तो करो यह कि चलो हम अभी गंधर्व विवाह कर लें। फिर जब भइया आ जायें तो उनकी अनुमति से धूमधाम से भी कर लेंगे। जब तुम कहोगी तब आकर मैं तुम्हें लिवा जाऊँगा।’’


दोनों रात्रि में माला पहने प्रासाद में पहुँचे। देखते ही मन्दोदरी चैंक गयी। बोली -
‘‘यह क्या है चन्द्रनखे ?’’
‘‘भाभी मैंने विद्युतजिव्ह से विवाह कर लिया है।’’
‘‘ऐसे अचानक किसीसे कुछ पूछा भी नहीं, किसी को कुछ बताया भी नहीं ? ऐसे होता है विवाह ?’’
‘‘मेरी माँ ने भी तो ऐसे ही किया था।’’
‘‘माँ की बात दूसरी थी, तब तुम्हारे मातामह लोग विष्णु से भयभीत छुपे-छुपे घूमते थे। तुत तो लंका के सम्राट की दुलारी बहन हो। दिग्विजयी रावण की दुलारी बहन हो, त्रिलोक विजयी रावण की बहन होने वाली हो - तुम्हें छुप कर विवाह करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी ?’’
‘‘खूब कही भइया की आपने भी ! उन्हें जब तक विजयों से फुर्सत मिलेगी तब तक तो मैं बूढ़ी हो जाऊँगी। और तब पता नहीं वे मेरे लिये कौन सा त्रिलोक विजयी लड़का खोजने लगें। मुझे तो मात्र विद्युत से प्रेम है सो मैंने इससे विवाह कर लिया।’’
‘‘कर लिया तो अब कर ही लिया। ठीक है, बैठो चल कर मेरे कक्ष में। मैं तुम्हारा कक्ष नवविवाहित युगल के अनुरूप व्यवस्थित करवाती हूँ। तुम्हारे लिये आभूषणों और वस्त्रों आदि की व्यवस्था करवाती हूँ, आओ ! भीतर चलो।’’
‘‘नहीं भाभी ! मैं रुक नहीं सकता, पिता ने अविलम्ब बुलाया है। मैं अपनी अमानत आपको सौंपे जा रहा हूँ उचित समय पर आकर ले जाऊँगा। तब तक सहेज कर रखियेगा, नहीं तो लड़ाई हो जायेगी मेरी आपसे।’’
‘‘चले जाना, पर अभी भीतर चलो।’’
‘‘नहीं भाभी, पिता का आदेश ...’’
‘‘जब तुमने चन्द्रनखा से विवाह कर ही लिया है तो अब मैं तुम्हारे गुरुजनों की श्रेणी में हूँ’’ मन्दोदरी विद्युज्जिव्ह की बात काटते हुये बोली - ‘‘अभी मैं प्रत्यक्ष हूँ, मेरा आदेश मानो फिर पिता का आदेश मानना, मैं नहीं रोकूँगी।’’
विवश विद्युज्जिव्य ने चन्द्रनखा के साथ भीतर प्रवेश किया।
‘‘स्नान करो पहले। मैं तब तक तुम्हारे लिये वस्त्राभूषण निकलवाती हूँ। यहाँ से तुम रावण के बहनोई के अनुरूप शान से ही जाओगे।’’ मन्दोदरी ने स्नानगृह की ओर संकेत करते हुये कहा। फिर चन्द्रनखा से बोली -
‘‘तुम चन्द्र बगल के कक्ष के स्नानगृह में स्नान कर लो। मैं तुम्हारे भी वस्त्राभूषण निकलवाती हूँ। उचित रीति से विदा करना अपने पति को।’’
दोनों को आदेश कर मंदोदरी चली गयी।
कुछ ही देर में उसने दोनों कक्षों में सोने की लंका की नव-विवाहिता कन्या और दामाद के अनुरूप बहुमूल्य वस्त्राभूषण रखवा दिये और बाहर से ही दोनों को इसकी सूचना दे दी।
कुछ देर बाद लंका में उपस्थित सारा कुटुंब सभा कक्ष में उपस्थित था। चन्द्रनखा और विद्युज्जिव्ह की छटा देखते ही बन रही थी। कैकसी ने जी भर के दोनों की दुआयें लीं। मंदोदरी, वज्रज्वाला और सरमा ने विधिपूर्वक तीनों की आरती उतारी और तिलक किया। पूरे आडंबर के बाद विद्युतज्जिव्ह को जाने की अनुमति मिल पाई।

क्रमशः


मौलिक एवं अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 580

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Sulabh Agnihotri on August 3, 2016 at 10:08am

आभार आदरणीया KALPANA BHATT जी !

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 3, 2016 at 7:10am
वाह । सुन्दर वर्णन ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service