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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६२

2122 1122 1122 22/ 112

 

याद की तह से कई भूले फ़साने निकले

आज हम तेरे लिखे ख़त जो जलाने निकले //1

 

चाहता हूँ मैं तुझे अपनी अना से बढ़कर

इस यकीं तक तुझे लाने में ज़माने निकले //२ 

 

ये भी अहसान जताने की नई कोशिश है

ख़त्म जब हो चुका रिश्ता तो मनाने निकले //3

 

अब कोई इनको बताए कि क़ज़ा क्या शय है

जा चुके छोड़ के दुनिया तो बुलाने निकले //4

 

जिनने खाई थी क़सम मुझको नहीं देखेंगे

आज काँधे पे मेरी लाश उठाने निकले //5

 

जो मेरे नाज़ उठाने में नहीं थकते थे

अपने हाथों से मेरी ख़ाक़ उड़ाने निकले //6

 

हैफ़ क्यों देखना क़ानून की नज़रों से इन्हें

भूख के मारे थे बच्चे जो चुराने निकले //7

 

छोड़ के पीछे बुजुर्गों की थकी आँखों को

लोग परदेस में दो पैसे कमाने निकले //8

 

बात ही बात में दिल क़ैद क्या नज़रों में  

वो तो मासूम से दिखते थे, सयाने निकले //9

 

आग बस्ती में ग़रीबों की लगाकर देखो

कितने शातिर हैं ये इंसाँ जो बुझाने निकले //10

 

ज़िंदगी भर की कमाई भी नहीं काम आई

राज़ गुल्लक से सभी सिक्के पुराने निकले //11

 

~राज़ नवादवी

 

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

 

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Comment

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Comment by Mohammed Arif on October 15, 2018 at 11:59am

आदरणीय राज़ नवादवी जी आदाब,

                        यह दूसरी ग़ज़ल भी बेजोड़ है । पढ़कर और गुनगुनाकर मज़ा आ गया । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।

Comment by राज़ नवादवी on October 15, 2018 at 8:30am

आदरणीय ब्रजेश जी, सुखन नवाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया. आपका संशय सही है, खाक़ शब्द स्त्रीलिंग है और मुझसे ये भूल हुई. इंगित करने का बहुत बहुत धन्यवाद. सुधार करके पेश करता हूँ. सादर. 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 14, 2018 at 7:24pm

वाह क्या कहने आदरणीय बेहतरीन ग़ज़ल.. 6 शेर को लेकर एक संशय है "मेरा ख़ाक" या मेरी ख़ाक...

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