1222---1222---122 |
|
जरा सा पास आकर देख तो लो |
कभी पलकें उठाकर देख तो लो |
|
अगरचे तिश्नकामी गम बहुत है |
उसे आँसू पिलाकर देख तो लो |
|
चलो माना कि नाटक ख़त्म लेकिन |
जरा परदा उठाकर देख तो लो |
|
बहुत तीखी है उनकी बात लेकिन |
उसे दिल से लगाकर देख तो लो |
|
ख़ुदा का तब्सिरा करने से पहले |
नया परबत बनाकर देख तो लो |
|
दिवारें रात भर सुनती रहेंगी |
कोई किस्सा सुनाकर देख तो लो |
|
वहीँ नीचे, ख़ुशी भी मुन्तजिर है |
ढकी दौलत हटाकर देख तो लो |
|
ये माना जिंदगी है कामयाबी |
जरा रेटिंग घटाकर देख तो लो |
|
यकीं मानो मेरे सिर पर कफ़न है |
मेरी गर्दन झुकाकर देख तो लो |
|
मुहब्बत की फिरौती दिल करेगा |
इसे बंधक बनाकर देख तो लो |
|
कभी करना मेरी तनकीद लेकिन |
मेरी गज़लें उठाकर देख तो लो |
|
------------------------------------------------------------ |
Comment
आदरणीय शिज्जू भाई जी, आपका स्नेह और मार्गदर्शन पाकर सदैव प्रेरित होता हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद.
आदरणीय कृष्ण भाई जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपने बहुत ही अच्छी सलाह दी है. आज सुबह ही मेरे में भी ख़याल आया कि ग़ज़ल विधा में 'देख तो लो' का लहजा कथ्य के सौन्दर्य को प्रभावित कर रहा है. लहजे की नफासत भी ग़ज़ल की एक विशेषता है. मार्गदर्शन हेतु आभार.
आदरणीया प्रतिभा जी, ग़ज़ल पर आपकी आत्मीय टीप पाकर मुग्ध हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर
आदरणीय आमोद जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. 'रेटिंग' शब्द का प्रयोग जानबूझकर किया है ताकि कथ्य का मर्म उभरकर सामने आये, जहाँ तक 'औसत' शब्द का प्रयोग है, उससे कथ्य ही बदल जायेगा. ग़ज़ल में बोलचाल में घुस आये अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग होता रहा है. इस विषय पर गुनीजनों की राय की भी प्रतीक्षा कर रहा हूँ .. सादर
आदरणीय मिथिलेश भाई , लागवाब गज़ल कही है , सभी अशआर बहुत खूब हुये हैं , दिली मुबारक बाद कुबूल कीजिये ॥
एक सलाह अकारण --- रदीफ को अगर, देखिये तो करें तो कैसा रहेगा -- जैसे
जरा सा पास आकर देखिये तो
कभी पलकें उठाकर देखिये तो -- कोई ज़रूरी नहीं है , बस यूँ खयाल आया तो कह दिया ॥
भक्ति और शक्ति पर्व के उपवासों के दौरान एक; 'फलहारी 'सी लगती रूमानी ग़ज़ल ,बधाई आपको आदरणीय अखिलेश जी
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online