मनुज रूप मैं पा गया,
हुआ स्वप्न साकार
कोमल किरणे भोर की,
बिखराती जब नेह है,
दिखती उल्लासित धरा
आन्दंदित हर देह है.
सचमुच एक सराय सा
लगा मुझे संसार
प्यार भरे व्यवहार से
मिलती देखी जीत है,
बना एक अनजान जब,
मेरे मन का मीत है
सच्ची निष्ठा ने किया,
हरदम बेडा पार
लोभ मोह माया कपट,
सारे लगते काल हैं,
सत्य यहाँ है मौत ही,
बाकी सब जंजाल हैं.
परम पिता का शुक्रिया
और नमन हरबार.
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा साहब सादर प्रणाम, आपका दोहा तो बहुत उत्तम रचा है. सच कहा नयी विधा है मैं तो प्रथम ही इस पर रचना कर रहा हूँ. उदाहरण अवश्य पुराने देखने मिले हैं. आपकी छंदात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत आभार. सादर.
वाह वाह अद्दभुत प्रयोग आ० अशोक कुमार रक्ताले जी ,पर एक बात समझ नहीं आई आपने सम चरण में देह है ,जीत है ,काल है जंजाल है ---इन सब में है एड करने की क्या आवश्यकता थी उसके बिना भी गीत प्रवाह में है मुझे तो ऐसा ही लग रहा है ,आपको इस सुन्दर प्रस्तुति के लिये दिल से बधाई.
भाव युक्त दोहे रचे , दिया गीत का मान
नयी लगी मुझको विधा , स्वीकारें सम्मान .....
आदरणीय Ashok Kumar Raktale जी , सुबह - सुबह परतं रचना पढ़ी , शुभ प्रभात . मेरे दोहे में मात्र देख लीजियेगा . सादर
बधाई
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