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कागज के ख़त...........'जान' गोरखपुरी

२२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२

 

मुद्दत से जिसने दुनिया वालों से मेरा नाम छुपा रक्खा है

जलने वालों ने ज़माने में उसका ही नाम बेवफा रक्खा है

 

**

 

रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर  

तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है

 

**

 

वो मेहरबां है तो कुछ और न सुना दे,गर हो जाय खफा तो   

चूड़ी ,कंगन, पायल, बादल..कासिद कायनात को बना रक्खा है  

 

**

 

बात कलम और कासिद की क्या जाने ये ईमेल जमाने वाले

आँसू, बोसे, खुशबू, जादू कागज के ख़त में क्या क्या रक्खा है

 

**

 

इक ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं  

जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है

 

 

 ************************************************** 

         मौलिक व् अप्रकाशित (c) जान गोरखपुरी

***************************************************

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Comment by Samar kabeer on June 6, 2015 at 10:09am
जनाब "जान" गोरखपुरी जी,आदाब,सुन्दर भावों से सजी इस ग़ज़ल के लिये हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 6, 2015 at 8:09am

भाई manoj जी,शुक्रिया,आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 6, 2015 at 8:08am

आ० भाई महर्षि जी,गजल की पसंदगी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया,आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 6, 2015 at 8:05am

आ० मोहन सेठी 'इन्तजार' सर!गजल पर आपकी आत्मीय प्रसंशा के लिए हार्दिक आभार सर! सादर!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 6, 2015 at 8:02am

आ० श्याम नरायन वर्मा जी बहुत बहुत शुक्रिया!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 6, 2015 at 8:01am

आ० भाई विनय कुमार जी आपकी आत्मीय प्रसंशा से बहुत उर्जा मिली,भाई इसी प्रकार अपना स्नेह बनाये रक्खें!तहेदिल से आपका शुक्रिया व् आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 6, 2015 at 7:51am

आ० गोपाल नरायन सर! सादर प्रणाम! आ० आपके और इस पावन मंच के सभी गुरुजनों,भाइयों ,मित्रों के सतत मार्गदर्शन और आशीर्वाद तथा ईश्वर की कृपा से ही यह गज़ल आकर ले सकी है,मेरा सौभाग्य है!आ० ऐसे ही अपना वरदहस्त बनायें रक्खें!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 6, 2015 at 7:41am

आ० सुशील सरन जी!गजल आपको पसंद आई,रचनाकर्म सफल हुआ! उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत शुक्रिया!हार्दिक आभार!

Comment by मनोज अहसास on June 6, 2015 at 4:52am
बधाई
सादर
Comment by maharshi tripathi on June 5, 2015 at 7:16pm

आ. मैं  निःशब्द हूँ,,,बहुत ही खुबसुरत गजल कही है आपने ,आ.गोपाल सर से सहमत ,,,,ये कुछ  मिसरे जो मुझे अच्छे लगे 

मुद्दत से जिसने दुनिया वालों से मेरा नाम छुपा रक्खा है

जलने वालों ने ज़माने में उसका ही नाम बेवफा रक्खा है

 

**

 

रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर  

तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है

 

**

 

वो मेहरबां है तो कुछ और न सुना दे,गर हो जाय खफा तो   

चूड़ी ,कंगन, पायल, बादल..कासिद कायनात को बना रक्खा है...वाह वाह !!बस यही निकल रहा |

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