२१२२/१२१२/२२
कितनी सादा-दिली से मिलता है
जब समुन्दर नदी से मिलता है.
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इक नयी कायनात पनपेगी
कोई भौंरा कली से मिलता है.
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रब्त इस बात पर टिके हैं अब
कोई कितना किसी से मिलता है.
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हर किसी से यही वो कहते हैं
दिल मेरा आप ही से मिलता है.
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अब सुमंदर में भी है बे-चैनी
क़तरा अपनी ख़ुदी से मिलता है.
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सुब’ह से पहले जुगनू यूँ चमका
गोया लम्हा सदी से मिलता है.
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मौत से क्या पता मिले क्या कुछ
दर्द.... हाँ ...ज़िन्दगी से मिलता है.
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मुफ़्लिसी से गुज़र रहा होगा
आजकल वो सभी से मिलता है.
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नाच उठती हैं बृज की सब गलियाँ
श्याम जब बाँसुरी से मिलता है.
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‘नूर’ अहसास-ए-कमतरी क्यूँ हो
अपना शजरा उसी से मिलता है.
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निलेश "नूर"
Comment
बहोत उम्दा ग़ज़ल
शुक्रिया आ. श्री सुनील जी
शुक्रिया आ. मोहन जी
शुक्रिया आ. मिथिलेश जी
वाह क्या शेर हुए हैं ...बधाई
मुफ़्लिसी से गुज़र रहा होगा
आजकल वो सभी से मिलता है.....बहुत गहरी बात
मुकम्मल ग़ज़ल, बेमिसाल
नूर का एक और कमाल
शुक्रिया आ. दिनेश भाई
शुक्रिया आ शिज्जू भाई
शुक्रिया आ. विनयकुमार जी
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