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भावनात्मक दरारें

माता पिता की ज़ख्मों वाली पीठ,
को न सहलाना,
परिवार की मुस्कुराहटों में,
न मुस्काना,
दोस्तों की खामोशियों में,
चुप रह जाना,
अपनों के दिलों में,
न झाँक पाना,
हमारी मजबूरियां नहीं,
कमजोरियां हैं,
जो अक्सर अपने,
बंधनों के,
एक धागे को,
तोड़ जाती हैं,
भावनात्मक दरारें हैं ये,
नहीं भरो तो,
निशान छोड़ जाती हैं .

किसी शीतल सुबह,
अपनी हथेलियों में,
ओस की बूँदें भरो,
अपने अहं को कर किनारे,
उसमे मिलाओ,
प्रेम की बहारें,
और कर दो अर्पित,
अपनों को सारे.
ये कोई खाइयाँ नहीं हैं,
की न पाट पाओगे,
भावनात्मक दरारें हैं ये,
अपनों की अपनों से,
प्यार से समझ जाएँगी,
बहुत पानी नहीं चाहिए,
इनके लिए,
महज़ ओस से ही,
भर जाएँगी.


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Comment

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Comment by neeraj tripathi on April 5, 2011 at 7:10am
vandanaji, ganeshji, saahilji, saurabhji, amiteshji aap sab ka aabhar.
Comment by अमि तेष on April 4, 2011 at 10:16pm
what can i say! speechless

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 4, 2011 at 9:14pm
भावनात्मक दरार्रों का दीखना, उन्हें देखना, उन्हें समझना.. और ’कुछ तो कर सकें’ की छटपटाहट बखूबी उभर कर आयी है इन पंक्तियों में. शुभकामनाएँ.
Comment by Saahil on April 4, 2011 at 8:36pm

बहुत पानी नहीं चाहिए,
इनके लिए,
महज़ ओस से ही,
भर जाएँगी.

 

बिलकुल सही कहा आपने, सुन्दर कविता!

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 4, 2011 at 8:27pm

भावनात्मक दरारें हैं ये,
अपनों की अपनों से,
प्यार से समझ जाएँगी,
बहुत पानी नहीं चाहिए,
इनके लिए,
महज़ ओस से ही,
भर जाएँगी.

 

वाह वाह नीरज साहब , बेहद उम्द्दा रचना है , गज़ब की अभिव्यक्ति है भाई , बहुत बहुत बधाई |

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