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कभी यूं भी-क्षणिकाएँ - 5 --- डॉo विजय शंकर

1. न कहीं जाना था
न जल्दी में थे हम
तुमने रोका नहीं
दूर हो गए हम………

2. जलने वाले
पीठ पीछे जलते हैं
जल के रौशनी भी
अपनों के लिए ही करते हैं ………

3. चले गये
मेरी जिंदगी से वो
किताबों के कमजोर कवर
जल्दी उत्तर जाते हैं
गुम हो जाते हैं ..............



4. अपनापन तो
कहीं भी होता है
वहां भी , जहां अपना
कोई भी नहीं होता है ………

5. ख़्वाब अधूरे नहीं ,
पूरे थे ,
अफ़सोस बस
पूरे हुए नहीं ..........

6. सब बुरे लगने लगें
आपके आगे
इतना अच्छा होना भी
अच्छा नहीं …………

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on April 6, 2015 at 8:59pm
आदरणीय श्याम मठपाल जी, आपकी इस प्रशस्ति हेतु आभार , आपकी बधाई के लिए भी धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on April 6, 2015 at 8:58pm
प्रिय मिथिलेश जी, आभार आपकी इस प्रशस्ति का , आपकी बधाई के लिए भी धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on April 6, 2015 at 8:57pm
आदरणीय निर्मल नदीम जी, बहुत बहुत आभार इस प्रशस्ति का , आपकी मुबारकबाद का भी धन्यवाद , सादर।
Comment by Shyam Mathpal on April 6, 2015 at 8:06pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर ji,

सुंदर रचना.हार्दिक बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 6, 2015 at 4:32pm

ख़्वाब अधूरे नहीं ,
पूरे थे ,
अफ़सोस बस
पूरे हुए नहीं ..........बहुत सुन्दर 

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर सुन्दर  प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई निवेदित है 

Comment by Nirmal Nadeem on April 6, 2015 at 1:06pm

BAHUT KHOOOB WAAAH WAAAH WAAAAH. BAHUT UMDA. KYA KAHNE JANAB. MUBARAK HO

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