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मुझको तन्हाई अक्सर बुलाती रही- ग़ज़ल

212/ 212/ 212/ 212

मुझको तन्हाई अक्सर बुलाती रही

बारहा पास आकर सताती रही

 

क्या कहूँ आँसुओं का सबब मैं तुझे

तल्खी तेरी ज़बाँ की रुलाती रही

 

रात भर मैं हवा के मुकाबिल खड़ा

लौ जलाता रहा वो बुझाती रही            

 

आइना अक्स मेरा बदलता रहा

ज़िन्दगी खुद से मुझको छुपाती रही

 

मैं न समझा कभी सच यही था मगर

ये ख़िज़ाँ राह मेरी बनाती रही   

 

बादबाँ खुल गये चल पड़ी नाव भी

मेरी किस्मत मुझे यूँ चलाती रही

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by शिज्जु "शकूर" on August 23, 2014 at 7:15pm

भाई आशीष जी रचना की सराहना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 14, 2014 at 11:07pm

रात भर मैं हवा के मुकाबिल खड़ा

लौ जलाता रहा वो बुझाती रही  ||  वाह !!

बादबाँ खुल गये चल पड़ी नाव भी

मेरी किस्मत मुझे यूँ चलाती रही |

खूबसूरत ग़ज़ल पर दाद क़ुबूल कीजिये शिज्जू भाई जी !

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 14, 2014 at 9:52pm

आदरणीय गिरिराज सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 14, 2014 at 9:51pm

आदरणीय विजय सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on August 14, 2014 at 9:51pm

आदरणीय सौरभ सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on August 14, 2014 at 9:50pm

आदरणीय विजय मिश्र जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on August 14, 2014 at 9:50pm

आदरणीया राजेश दीदी आपका हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 14, 2014 at 9:49pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई आपका हार्दिक आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on August 14, 2014 at 9:49pm

भाई रामशिरोमणि पाठक जी आपका हार्दिक आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on August 14, 2014 at 9:48pm

आदरणीय डॉ आशुतोष सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया तन्हाई का वज्न 222 होगा जिसकी मात्रा गिरा कर मैंने 221 लिया है, सादर

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