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नौकरी के बाद का जीवन -दीपक पांडेय

अध्येता जब मैं था मुझकों थी रोज़गार की लालसा
दूर हो आर्थिक तंगी मेरी - सुधरे अपनी दशा
उच्य हो सामाजिक स्तर कुछ ऐसा हो अपना नौकरीपेशा
उमंग भरे माहौल में होता नित यारों के साथ जलसा

रोज़गार की आस मे दौड़ा- लगा के पूरा दम
मैने फिर नौकरी के परिवेश मे रखा ज्यों कदम
त्यों बदला परिवेश मेरा- दूर हुआ कुछ भ्रम
कार्यालय ही अपना डेरा, कार्यालय ही आश्रम

पराधीन हुआ अब आधा जीवन ,चली गयी आज़ादी
अपनों से दूर होकर के हो गया गुलामी का आदी
खुशियों की होती कभी -कभी यहाँ पर बूँदा-बाँदी
बचा-खुचा भी नर्क हुआ जब हुई हमारी शादी


रोब दिखाए पत्नी घर पर, कार्यालय मे बास
हँसी खुंसी जीवन का कर बैठा अब तो सत्यानाश
कुंवारे विद्यार्थी मित्र करते अब मेरा उपहास
सुख भागा बन करके सौतन-दुख आया आवास

मेरा रिमोट बीवी के हाथों में, टीवी रिमोट लिए बच्चे
लगते सब मुझको अब झूठे , लगते नही कोई सच्चे
ना खा पाऊँ चाट पकौड़े, जीवन नीरस लगे मुझे
खोज ना सकूँ दुख का कारण, ना कोई उत्तर सूझे

दीपक पांडेय
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by coontee mukerji on October 20, 2013 at 1:23am

भाई साहब बुरा न मानें.......नौकरी के दिनों में आपकी गाड़ी नाव पर थी और नौकरी के बाद नाव गाड़ी पर....वेरी सीम्पल....काहे का रोना......शुभ शुभ.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 19, 2013 at 6:01pm

आदरणीय दीपक भाई , सुन्दर हास्य रचना के लिये आपको हार्दिक बधाई !!!!!

कृपया ध्यान दे...

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