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ग़ज़ल - कुर्बतों की बात आखिर क्यों करें

2122 2122. 2122. 212

खो गई है प्यार की पतवार लगता है यही
नाव अपनी पास ही मझधार लगता है यही

कुर्बतों की बात आखिर क्यों करें हम बोलना
कर रहे हैं मौत का व्यापार लगता है यही

रोज ही गढ़ते कहानी बारहा बढ़ते कदम
दिख गया कोई नया बाजार लगता है यही

मौत का मंजर कहीं रस्ते न आ जाए यहाँ
देखकर तैयारियाँ खूँखार लगता है यही

जुल्मतों नें घेर ली है राह चारो ओर से
हाथ में है सो गई तलवार लगता है यही

जीत का आलम कभी दीदार था हमने किया
हाथ में टिकते नहीं हथियार लगता है यही

आँख नम है कोर पर कैसी उदासी छोड़ दो
आँसुओं में बह गया दीदार लगता है यही

पूनम शुक्ला
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil.Joshi on October 4, 2013 at 7:40am

भावों को सुंदर सँजोया है आपने आदरणीया पूनम जी.... बधाई...

Comment by annapurna bajpai on October 3, 2013 at 9:13pm

आँख नम है कोर पर कैसी उदासी झाँकती
सावनों में घुल गई है खार लगता है यही................................ सुंदर अशर बधाई आपको । 

Comment by Abhinav Arun on October 3, 2013 at 8:19pm

जुल्मतों नें घेर ली है राह चारो ओर से
हाथ में है सो गई तलवार लगता है यही.......बहुत सुन्दर अशार हुए हैं हार्दिक बधाई आपको !!

Comment by रविकर on October 3, 2013 at 7:27pm

सुन्दर गजल-
आभार आदरेया-

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 3, 2013 at 5:45pm

पूनम जी ..मुझे ग़ज़ल के बिषय में कुछ भी नहीं आता ..सीख रहा हूँ ..पर लगता है पंक्तियों में बहाव की कमी है ..मेरी बात गलत भी हो सकती है अन्यथा न लीजियेगा ..सादर 

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 3, 2013 at 5:23pm

शुभकामनाये सुन्दर रचना !

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