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न हम मंदिर बनाते हैं न हम मस्जिद बनाते

कभी काँटे बिछाते हैं कभी पलकें बिछाते हैं॥

सयाने लोग हैं मतलब से ही रिश्ते बनाते हैं॥

हमारे पास भी हैं ग़म उदासी बेबसी तंगी,

तुम्हें जब देख लेते हैं तो सब कुछ भूल जाते हैं॥

वो धमकी रोज देता है के घर मेरा जला देगा॥

बड़ी मासूमियत से उसको हम माचिस थमाते हैं॥

इबादत के लिए उसकी हमारा दिल ही काफी है,

न हम मंदिर बनाते हैं न हम मस्जिद बनाते हैं॥

ग़रीबों की गली में क़त्ल अरमानों का होता है,

जहां पर ख़्वाब पलने से ही पहले टूट जाते हैं॥

मुहब्बत के फसाने में वो ज़िंदा रहते हैं हरदम,

वफ़ा की राह में हँसकर जो अपना सर कटाते हैं॥

जगी आँखों से सपने देखते हैं जो यहाँ “सूरज”,

फ़लक पर चाँद तारों की तरह वो जगमगाते हैं॥

डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”

(स्वरचित और अप्रकाशित)

 

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Comment

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Comment by मोहन बेगोवाल on February 20, 2013 at 9:17pm

डाक्टर साहिब, 

 एक प्यारी गज़ल पोस्ट करने की हमारी वधाई कबूल करें ,हर शेर लाजवाब है


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 20, 2013 at 8:26pm

वाह एक और शानदार ग़ज़ल पढवाई डॉ बाली जी हर शेर कमाल का है दाद कबूल करें 

Comment by Rita Singh 'Sarjana" on February 20, 2013 at 7:06pm

ग़रीबों की गली में क़त्ल अरमानों का होता है,

जहां पर ख़्वाब पलने से ही पहले टूट जाते हैं॥

मुहब्बत के फसाने में वो ज़िंदा रहते हैं हरदम,

वफ़ा की राह में हँसकर जो अपना सर कटाते हैं॥ bahut sundar surya ji badhai

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 20, 2013 at 6:50pm

वाह वाह सर जी

एक एक शेर लाजवाब है किस किस की तारीफ करूँ

बस पढता ही गया

बहता ही गया

आनंद ही आनंद

हर शेर के लिए दाद पे दाद क़ुबूल कीजिये सर जी

स्नेह बनाये रखिये .........जय हो

Comment by Satyanarayan Singh on February 20, 2013 at 6:45pm

खूब सूरत गजल हेतु हार्दिक बधाई. स्वीकार करें.

Comment by वेदिका on February 20, 2013 at 6:33pm

कभी भूले से सर्मिन्दा मेरे हमराज़ होते है 

वो अपनी चाल चलते  है मुझे ऐसे बनाते है 

                                                   -"वेदिका "

लाजबाब रचना है आपकी ..:)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 20, 2013 at 5:18pm

इस रवानगी और उम्दा भाव के साथ देर तक बहता रहा. मतले से ही जिस तरीके आपने बाँध लिया, मक्ते तक वही बना रहा है. यह ग़ज़ल आने वाले सालोंसाल तक आपकी सारी ग़ज़लों में अलग ही दखेगी.

बार-बार पढूँ और बार-बार दिल से दाद कहूँ. 

हार्दिक बधाई, डॉक्टर साहब.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on February 20, 2013 at 5:14pm

खूब सूरत गजल हेतु हार्दिक बधाई. सर जी 

Comment by ajay yadav on February 20, 2013 at 5:05pm

सादर प्रणाम सर

बहुत ही प्रेरक और हकीकत से रूबरू रचना ...

जगी आँखों से सपने देखते हैं जो यहाँ “सूरज”,
फ़लक पर चाँद तारों की तरह वो जगमगाते हैं॥

बहुत प्रेरक |आभार |

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