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जिंदगी ले के चली, एक ऐसी डगर,
राह के उस पार, चलते हैं हम सफ़र. 

रात और दिन, मील के पत्थर जैसे हैं,
मोड़ बन जाते कभी, हैं चारों पहर.
  
फादना पड़ता है, दीवारें अनवरत,
ढूँढना चाहूँ मै, 'उसको' जब भी अगर.
 
शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर.

द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें,
बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर.

जिंदगी में लेने आता, एक बार पर-
बैठती हूँ रोज, 'बस्तीवी' सज संवर!

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Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 17, 2012 at 2:21pm

माननीय प्रदीप जी, एवं मित्र वहीद भाई;   आपकी तारीफ पाने के लिए ही बस लिखी है :-)

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 17, 2012 at 12:25pm

द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें,
बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर

प्रिय राकेश भाई,

बहुत ही ख़ूबसूरत पेशकश की आपने। बहुत ख़ूब।

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 17, 2012 at 10:35am

keep it up dear, rakesh ji. sasneh. badhai.

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