भूख की चौखट पे आकर कुछ निवाले रह गए
फिर से अंधियारे की ज़द में कुछ उजाले रह गए
आपकी ताक़त का अंदाजा इसी से लग गया
इस दफे भी आप ही कुर्सी संभाले रह गए
लाख कोशिश की मगर फिर भी छुपा ना पाए तुम
चंद घेरे आँख के नीचे जो काले रह गए
जब से मंजिल पाई है होता नहीं है दर्द भी
देते हैं आनंद जो पाओं में छाले रह गए
जम गए आंसू, चुका आक्रोश, सिसकी दब गई
इस पुराने घर में बस चुप्पी के जाले रह गये
अब डुबा दे या कि पहुंचा दे मुझे उस पार तू
हम तो सब कुछ भूलकर तेरे हवाले रह गए
उनसे बढ़कर इस जहाँ में है नहीं कोई धनी
अपने पुरखों की विरासत जो संभाले रह गए
Comment
avismarneey pal the jab sabhi ki rachnaon ko sun aur saraah saki ..Aapki is ghazal ne to sabko waah waah karne ko majboor kar dia..bahut khoob kahte hain aap :) badhai..
मेरे लिए ख़ुशी की बात यह है कि मैं इस ग़ज़ल को सीधे उसके शायर की जुबानी सुन सका. पूरी ग़ज़ल तो बाद में... पहले तो मतले पर ही पूरा मुशायरा लुट जाए. और इस शे'र की तो क्या बात की जाए..
"जम गए आंसू, चुका आक्रोश, सिसकी दब गई
इस पुराने घर में बस चुप्पी के जाले रह गये"
वाह-उस्ताद-वाह... (अरे हुज़ूर.. वाह 'राणा' बोलिए..)
जय हो!!!
लाख कोशिश की मगर फिर भी छुपा ना पाए तुम
चंद घेरे आँख के नीचे जो काले रह गए !!! वा राणा जी !!
राणा जी.. !! .. क्या दिल को खँगाला है, माँजा है.. वाह ... और जो कुछ कढ़ा है, वोह ये ग़ज़ल बन कर उभरा हैं.
हम क्या कहें, भाई, लेकिन भाव जब दिल को छुएँ तो बेसाख़्ता ’वाह-वाह’ के बोल फूट ही पड़ते हैं.
इन अश’आर पर मैं कुछ जाती तौर पर कहूँगा -
भूख की चौखट पे आकर कुछ निवाले रह गए
फिर से अंधियारे की ज़द में कुछ उजाले रह गए
इस मतले पर हम दंग हैं. दाद तो बाद में, अव्वल तो भूख की चौखट पर आकर निवालों को बेबस होते हुए सोचना. ओह !
और जो कुछ बना भी, तो फिर अंधियारे की ज़द को सोच कर भी अवाक् हैं. बहुत-बहुत बधाई. वाह-वाह-वाह !!
आपकी ताक़त का अंदाजा इसी से लग गया
इस दफे भी आप ही कुर्सी संभाले रह गए
इस शे’र पर दिल-जाँ, होश-दिमाग़ सबकुछ कुर्बान.. ! सही है, ताक़त की कसौटी अब ऐसी ही ज़िद हो गई हैं, जो घिनौने अहंकार का तुष्टिकरण करती है.
लाख कोशिश की मगर फिर भी छुपा ना पाए तुम
चंद घेरे आँख के नीचे जो काले रह गए
इन घेरों के पीछे का राज़ अब राज़ नहीं हुआ करते फिर भी जरा कोई झुके हुए कंधों से पूछे. तो उनका कोई नय रुख़ सामने होगा.
जब से मंजिल पाई है होता नहीं है दर्द भी
देते हैं आनंद जो पाओं में छाले रह गए
बहुत खूब.. जो दर्द है वही अपना है न ! बाकी तो बलबले हैं पानी की सतह बिलबिला कर उभरते, फूटते.
जम गए आंसू, चुका आक्रोश, सिसकी दब गई
इस पुराने घर में बस चुप्पी के जाले रह गये
वाह उस्ताद, वाह ! क्या अंदाज़ है !! चुप्पियों को कई-कई रूपों में देखा है. सही कहूँ, उनके जाले से बहुत डर लगता है.
अब डुबा दे या कि पहुंचा दे मुझे उस पार तू
हम तो सब कुछ भूलकर तेरे हवाले रह गए
भाई, नवधा भक्ति के अध्याय में इस भाव को मार्जार-भक्ति कहते हैं !
अब ’वो’ बना दे या फिर बिगाड़ ही दे, जानोदिल सारा तो कर दिया ’उसके’ हवाले. राणा जी, इस शायराने अंदाज़ में जो समर्पण है वह आपकी कहन को बहुत ऊँचाई दे रहा है. अभिभूत हूँ.
उनसे बढ़कर इस जहाँ में है नहीं कोई धनी
अपने पुरखों की विरासत जो संभाले रह गए
आखिरी शे’र ने तो रग-रग को सौंधी ख़ुश्बू से तर कर दिया, भाई ! पुरखों की उन्नत परिपाटियों, तहज़ीब और उद्दात भावनाओं को जो कौम ज़िन्दा रखती है वाकई वही धनी हुआ करती है. और उस कौम के लोग ज़िन्दा हुआ करते हैं..
अपनी इस ग़ज़ल पर मेरी भरपूर मुबारकबाद कुबूल फ़रमायें. बहुत दिनों से इस पटल को आपकी प्रविष्टि का इंतज़ार था और किस लिहाज और तहज़ीब से तर किया है आपने इन आँखों को... इस पुरकशिश ग़ज़ल ने भरपूर मुत्मईन किया है.
वाह-वाह-वाह !!
आपकी ताक़त का अंदाजा इसी से लग गया
इस दफे भी आप ही कुर्सी संभाले रह गए
वाह भाई क्या लाजवाब कटाक्ष किया है
पूरी ग़ज़ल सुन्दर बन पडी है
हर शेर लाजवाब
अब कहना तो बनता है >>> जिंदाबाद जिंदाबाद
वाह... बहुत जीवंत रचना... बधाई राणा प्रताप जी...
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