मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
मगर पाण्डव हैं मुट्ठी भर, खड़े हैं.
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हम इतनी बार जो गिर कर खड़े हैं
मुख़ालिफ़ हार कर शश्दर खड़े हैं. शश्दर-आश्चर्यचकित, स्तब्ध
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कभी कोई बसेगा दिल-मकां में
हम इस उम्मीद में जर्जर खड़े हैं.
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ऐ रावण! अब तेरा बचना है मुश्किल
तेरे द्वारे पे कुछ बंदर खड़े हैं.
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उसे लगता है हम को मार देगा
हम अपने जिस्म से बाहर खड़े हैं.
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मुझे क़तरा समझ बैठा है नादाँ
मेरे पीछे महासागर खड़े हैं.
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ख़ुदा दुनिया से कब का जा चुका है
ख़ुदा के नाम के पत्थर खड़े हैं.
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नए रब के नए पैग़ाम लेकर
हर इक नुक्कड़ पे पैग़म्बर खड़े हैं.
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मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
आ. नीलेश भाई , बेहतरीन ग़ज़ल हुई है ,सभी शेर एक से बढ कर एक हैं , हार्दिक बधाई ग़ज़ल के लिए
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