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2122 2122 2122
आग से ही आग का संधान फिर फिर
हाथ जलता छल रहा इंसान फिर फिर।1

आग अपनी तो भली सबको लगी है
ढल रहा कितना सुलग दिनमान फिर फिर।2

आग सागर की उफनती किस कदर यह
और उठने को गला हिमवान फिर फिर।3

जब पवन ठिठका लता फिर है लजाई
आँसुओं में बह रहा तूफान फिर फिर।4

आग का मंजर गजल का वाकया है
बह्न सजती है जुड़े अरकान फिर फिर।5


जब मिली मंजिल मुसाफिर है थमा बस
फिर चला है हो रहा हलकान फिर फिर।6

गाँठ यह जो खुल रही है खुद लगाता
ढूँढता नर हल चला आसान फिर फिर।7
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on March 7, 2016 at 6:38pm
आदरणीय सतविंदर जी आभार आपका, गजल की सराहना व सुझाव के लिए भी। अभी परिष्कृत किये देता हूँ,शुक्रिया।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on March 7, 2016 at 4:10pm
बहुत ख़ूब आदरणीय मनन जी।उम्दा ग़ज़ल कही गई है।बहुत बहुत बधाई।

एक निवेदन क्या 7वें शेर का मिसरा ए उला बा बह्र है?
एक पाठक की जिज्ञासा है।कृपया अन्यथा न ले।सादर

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