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चैनो-सुकून, दिल का मज़ा कौन ले गया-- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

221-2121-1221-212

 

चैनो-सुकून, दिल का मज़ा कौन ले गया

दामन की वो तमाम दुआ, कौन ले गया?

 

ताउम्र समंदर से मेरी दुश्मनी रही

था रेत पर जो नाम लिखा कौन ले गया

 

जंगल के जुगनुओं को पता भी नहीं चला

चटके बदन की जर्द कबा कौन ले गया

 

आवाज़ दे रहा हूँ मगर बेअसर जबां

जुम्बिश लबों की नोंच भला कौन ले गया

 

अमरित ये जिल्लतों का छोड़ मेरे वास्ते

इज्जत के जह्र का वो घड़ा कौन ले गया

 

ताउम्र फिक्रे-वस्ल वो मसरूफ ही रहे

अब पूछते है कद्रे-अना कौन ले गया

 

मौका, जुनून आदतो-मजबूरी, आरज़ू

वजहें थी काम की ये उठा कौन ले गया

 

मेरा कहाँ कयाम है मेरा कहाँ दयार

मालूम ही नहीं कि पता कौन ले गया

 

उजड़े हुए चमन का था अहदे-हयात वो

इक आस का था फूल खिला कौन ले गया 

 

सीने की आरज़ू थी जो धड़कन का आसरा

सांसों से आ रही वो सदा कौन ले गया

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2015 at 3:17pm

आदरणीय महर्षि भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2015 at 3:17pm

आदरणीय रवि जी, आपकी दाद पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. 

मतला--  दामन में समेटी हुए दुआएं कौन ले गया, ये प्रश्न है. संभवतः कथ्य वैसा संप्रेषित नहीं हो पा रहा है. पुनः प्रयास करता हूँ सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2015 at 3:14pm

आदरणीय कृष्ण भाई जी, आपको पुनः ओबीओ पर सक्रीय देखकर अच्छा लगा. ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2015 at 3:13pm

आदरणीया राहिला जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2015 at 3:12pm

आदरणीय दिनेश भाई जी ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 

Comment by maharshi tripathi on November 19, 2015 at 4:59pm

आ.मिथिलेश वामनकर सर ,आपकी हर गजल में कुछ न कुछ सीखने को मिलता है ,सुंदर शब्दों से सजी एक और सुन्दर गजल पर आपको बधाई |

Comment by Ravi Shukla on November 19, 2015 at 2:41pm

वाह वाह वाह मिथिलेश जी श्‍ाानदार ग़ज़ल कही है आपने हर शेर अपने भाव को बखूबी कह रहा है

जंगल के जुगनुओं को पता भी नहीं चला

चटके बदन की जर्द कबा कौन ले गया .... क्‍या कहने भई वाह वाह वाह

मौका, जुनून आदतो-मजबूरी, आरज़ू

वजहें थी काम की ये उठा कौन ले गया   बहुत खूब  शानदार कथ्‍य

हमने दो शेर इस लिये लिखें क‍ि ये हमें बहुत अच्‍छे लगे । वैसे पूरी ग़ज़ल शानदार है शेर दर शेर दाद कुबूल करें ।

एक बात पर आप भी विचार करियेगा जो  मतला पढ़ के हमारे मन में आई है  दुआएं तो देने के लिये ही होती है कोई भी दे फिर कोई ले गया तो शिकायत क्‍यूं । ये जिज्ञासा है शिकयत है रंज है सवाल है क्‍या है । सादर

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on November 19, 2015 at 2:26pm
मौका, जुनून आदतो-मजबूरी, आरज़ू
वजहें थी काम की ये उठा कौन ले गया.....वाह्ह्ह्ह्ह् वाह।
बेहतरीन ग़ज़ल हुयी है आ.मिथिलेश सर हार्दिक बधाई।
Comment by Rahila on November 19, 2015 at 11:44am
हर शेर दाद के काबिल हुआ आदरणीय मिथलेश जी!बहुत खूब रचना, बधाई स्वीकार कीजिये ।सादर
Comment by दिनेश कुमार on November 19, 2015 at 4:45am
मतले से आखिर तक हर शेर के लिए दाद क़बूल करें भाई मिथिलेश जी। वाह वाह वाह। आप एक उस्ताद शायर हैं। शब्दों से जादूगरी में माहिर हैं। वाह

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