देहरी लांघ चली
 आशाएं
 मुंह बाएं प्रीत
 भगोना
 अँखुवाती भर देह
 विवशता
 जिद अपनी छोड़े ना
आदिम सब
चट्टान पसीजे
प्रणय पीसता
चक्की सा
रेशा-रेशा
बिखरा अग-जग
देह दशा भी
शक्की सा
टूट रहा जो अंदर-भीतर
वो क्योंकर जोड़े ना ?
भेद भरे ये
मौसम, बादल
ढाढ़स कहां
बंधाते हैं
घनीभूत कुछ
लवण अचानक
घावों पर
रख जाते हैं
धारा जो विकराल विषहरा
क्यूं उसको मोड़े ना ?
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत ही सुन्दर! आपकी रचनाओं को पढ़ना बहुत ही आनन्ददायक अनुभूति होती है। मन को तृप्ति मिलती है। यह रचना भी वैसी ही है।
इस रचना पर आपको हार्दिक बधाई और आपके लेखन को नमन!
"सुंदर रचना पर, तहे दिल से बधाई..आदरणीय..राजेश जी
भेद भरे ये
मौसम, बादल
ढाढ़स कहां
बंधाते हैं
विवशता का नवगीत!!
बधाई स्वीकारिये आदरणीय राजेश जी!!
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bahut khub . rajesh jha ji .
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