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जगाता रहा

समय का चाबुक

जन जन को !

निगाहों पर

तस्वीरों के निशान

उभर आते !

सोयी आँखों में

सपने बनकर

बिचरते हैं !

संकेत देते

बढ़ते कदमो को

संभलने का !

इंसानी तन

लिप्त था लालसा में

नजरें फेरे !

संभले कैंसे

रफ़्तार पगों की

बेखबर दौड़े !

रचना – राजेन्द्र सिंह कुँवर ‘फरियादी’

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Comment

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Comment by राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' on March 1, 2013 at 2:26pm

धन्यवाद सौरभ पाण्डेय जी आप की प्रतिक्रिया के लिए आपका स्नेह और आशीर्वाद सदा यूँ ही बना रहे यही कामना है 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 1, 2013 at 2:12pm

समय प्रक्रिया और उपजे अंतर्द्वंद्व को बखूबी प्रस्तुत करती रचना के लिए हार्दिक बधाई.. .

Comment by राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' on March 1, 2013 at 1:55pm

धन्यवाद मीना जी आप की प्रतिक्रिया के लिए आपका स्नेह और आशीर्वाद सदा यूँ ही बना रहे यही कामना है 

Comment by Meena Pathak on March 1, 2013 at 1:53pm

इस सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकारें 

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