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हाय रे, भैंस की पूंछ..........

फिल्मकार भी कभी-कभी नहीं, अधिकतर अपनी फिल्मों के जरिए परिवार में परेशानियां ही पैदा कर देते हैं। बाॅबी देओल ने बरसात में नीला चष्मा पहना तो मेरा सुपुत्र ;फिलहाल सुपुत्र ही कहना पड़ेगाद्ध जिद पर अड़ गया कि उसे भी नीला चष्मा पहनना है, टीवी सीरियल पर कोमलिका नाम के कैरेक्टर को देखकर अर्धांगिनी ने चढ़ाई कर दी कि उसे भी कोमलिका जैसे गहने, सौंदर्य प्रसाधन चाहिए। इन सब परेशानियों से तो जैसे तैसे निपट लिया, पर सबसे बड़ी परेशानी पैदा की भैंस की पूंछ ने, अरे भई, मैं शाहरूख खान अभिनीत चक दे इंडिया की बात कर रहा हूं। पिछले दिनों टीवी पर जब यह फिल्म आई तो मेरी 8 बरस की बिटिया शानू भी यह धांसू फिल्म ;धांसू क्यों कहा, आगे पता चलेगाद्ध देख रहे थे। फिल्म में महिला हाॅकी को प्रोत्साहित करते हुए शाहरूख को देखकर मेरे आल-औलादें ; ज्यादा नहीं,सिर्फ तीन हैंद्ध भी काफी खुष दिख रहे थे, पर फिल्म में एक महिला खिलाड़ी बार-बार धौंसियाते हुए कहती थी इसकी तो.. भैंस की पूंछ। कई बार जब यही डाॅयलाग बिटिया ने सुना तो उसे लगा कि शायद भैंस की पूंछ पकड़ने की वजह से ही ये महिला खिलाड़ी फिल्म में अभिनय करने का मौका पा सकी है। लिहाजा बिटिया भी मुझसे अड़ गई, मुझे भी भैंस की पूंछ पकड़ना है। मैं ठहरा छोटा-मोटा पत्रकार, तबेले में कभी झांकने तक गया नहीं, कि कैसे काली-कलूटी भारी-भरकम भैंसंे दिन भर मुंह चलाते हुए जुगाली कर लेती है, मुंह दर्द भी नहीं देता ;शायद न्यूज चैनलों के एंकर मुंह चलाने के प्रेरणा भी भैंस की जुगाली से पाते होंगे ?द्ध फिर यमराज के इस वाहन को छेड़े कौन, चढ़ बैठी, तो ब्रम्हा भी नहीं बचा सकते। मैंने कहा बेटू, ये भैंस कोई आस-पड़ोस में होती तो तुझे जरूर दिखा देता, पूंछ पकड़वाने की हिम्मत भी कर लेता, पर दूर-दूर तक मुझे किसी के यहां भैंस होने का पता ही नहीं, तो कहां से लाउं भैंस, जिद नहीं करते। पर बालहठ तो जैसे चरम पर था, मैंया मैं तो चंद्र खिलौना लैंहों, कृष्ण जी को मां यषोदा से टीवी सीरियल में बालहठ करते मेरी बिटिया देख ही चुकी थी, लिहाजा मानने को तैयार ही नहीं। उसे किसी भी तरह भैंस की पूंछ पकड़नी ही थी। मैंने सोचा कि अब नन्ही बिटिया का दिल रखने के लिए थोड़ी बहुत परेशानी झेल ही लूं। साथी पत्रकार राजकुमार देहात क्षेत्र के अच्छे जानकार थे, उसे मोबाईल लगाकर पूछा यार एक भैंस देखनी है, मित्र आश्चर्यचकित होते हुए बोले क्यों, पत्रकारी छोड़कर तबेला खोलने का इरादा है क्या ? मैंने उसे सारा किस्सा बताया तो उसने अपने एक परिचित का पता दिया कहा कि मेरा नाम ले लेना, वह आपको भैंस से मिलवा देगा। मैंने एहसान माना, इसलिए कि पत्रकार बंधु ने फोकट में मेरी परेशानी हल कर दी थी, वरना आजकल लोग फिकरे कसते नहीं चूकते कि बिना दारू, मुर्गे, पार्टी-शार्टी के इस बिरादरी वालों से काम निकलवाना कठिन है।
फिर मैं अपनी खटारी मोटरसायकिल पर बिटिया को बिठाकर चल पड़ा गांव की ओर। गांव पंद्रह किलोमीटर दूर था, वहां पहुंचकर अपने मित्र राज के मित्र सतीश को मैंने परिचय दिया, तो वह अपनी बाड़ी में बंधी हुई इकलौती भैंस से मिलाने ले चला। उसके पहले सतीश ने मुझे बताया, अब तक चार लोगों को अस्पताल भेज चुकी है मेरी प्यारी भैंस, मैं घबरा गया, उसने कहा घबराने की जरूरत नहीं, बहुत सीधी है, बस टेढ़े-मेढ़े लोगों से चिढ़ती है, तो चढ़ दौड़ती है उन पर। मैंने सोचा कि मैं तो ठहरा सीधा-साधा पत्रकार, भैंस से मेरी क्या दुश्मनी। बिटिया को लेकर मैं भैंस के पास पहुंचा, दस मीटर लंबी रस्सी से, खूंटे में बंधी खूबसूरत सी काली भैंस मेरी तरफ देखकर जुगाली करने लगी, ऐसा लगा कि मुस्कुरा रही है, काम बन जाएगा। बिटिया ने कहा मुझे इसकी पूंछ पकड़ना है, मैं बिटिया का भैंस के पिछवाडे़ की तरफ ले गया और कहा ले पकड़ पूंछ, अपना शौंक पूरा करले। बिटिया ने पूंछ पकड़ी, भैंस अपनी धुन में जुगाली करती रही। बिटिया को मजा आया, पांच मिनट तक पूंछ पकड़ कर हिलाई-डुलाई-सहलाई। पूंछ छोड़कर बिटिया बोली कि चलो पापा हो गया। मैंने सोचा कि जब इतना दूर आया हूं इस महान आत्मा, यमराज की सवारी, मेरी बिटिया को लगी प्यारी भैंस की एक फोटो खींच ही लूं, याद रहेगा कि जीवन में इससे भी मिलने की जरूरत पड़ गई। मैंने कैमरा निकाला कर सामने से फोटो खींचा, कैमरे का फ्लैष चमका, इससे भैंस भी चमक कर मेरी ओर दौड़ी और दोनों सींगों से उठाकर जो पटका, तो लगा कि बस अब तो सब कुछ खतम, कैमरा दूर छिटक कर पानी की टंकी में गिर गया। सतीश ने मुझे दौड़कर उठाया और भैंस से दूर ले गया, बोला अरे, इतने पास से फोटो खींचने की क्या जरूरत थी। मैंने षरीर में उठ रहे दर्द के कारण कुछ नहीं कहा। किसी तरह बिटिया को वापस ले कर घर पहुंचा। उसके बाद बिस्तर पर लेटा तो षाम तक उठने की हिम्मत नहीं हुई। पत्नी ने कई बार पूछा कि क्या हुआ दफ्तर नहीं जाना क्या, मैं उसे कैसे बताता कि उसके बेलन सहते-सहते थोड़ा मजबूत तो हो गया था, पर भैंस की पटखनी को सहना मेरे बस की बात नहीं थी। ले देकर पत्नी ने हाथ पैर में मालिष की तो नींद आई। सुबह उठा तो चक दे...बनाने वाले को कोसा। फिर भैंस की याद आई तो सहम गया। कान पकड़े कि अब भैंस की तस्वीर जीवन भर नहीं खींचूगा।

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Comment by rajkumar sahu on October 23, 2010 at 3:50pm
ab to pata chal gaya, bhains badi ki patrakar.

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 17, 2010 at 4:55pm
मैंने सोचा कि जब इतना दूर आया हूं इस महान आत्मा, यमराज की सवारी, मेरी बिटिया को लगी प्यारी भैंस की एक फोटो खींच ही लूं, याद रहेगा कि जीवन में इससे भी मिलने की जरूरत पड़ गई। मैंने कैमरा निकाला कर सामने से फोटो खींचा, कैमरे का फ्लैष चमका,

हा हा हा हा हा ,आखिर दिखा दिया ना पत्रकार वाली गुण, हा हा हा हा हा हा , बहुत बढ़िया भाई, एक बहुत ही बेहतरीन व्यंग लिखा है आपने, और व्यंगात्मक लहजे मे ही सही पर हकीक़त लिखा है आपने, घर घर की कहानी है, बच्चे टी वी के विज्ञापन देख देख कर फरमाईस कर देते है, co . वाले विज्ञापन पहले करते है और प्रोडक्ट बाद मे निकालते है और भईया हम लोग इस स्टोर से उस स्टोर तक भटकते रहते है और उलटा श्रीमती जी की दो बात बोनस मे कि ये गये ही नहीं होंगे |
बहुत बहुत आभार आपका, उम्मीद करते है कि आगे भी आपको पढ़ने को मिलेगा |

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