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ग़ज़ल (हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है)

हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है
पहचान छुपा के जीता है, पहचान में फिर भी आता है

दिल टूट गया है- मेरा था, आना न कोई समझाने को,
नुक़सान में अपने ख़ुश हूँ मैं, क्या और किसी का जाता है

संतोष सहज ही मिल जाए, तो कद्र नहीं होती इसकी,
संतोष की क़ीमत वो जाने, जो चैन गँवा कर पाता है

आज़ाद परिंदे पिंजरे में, जी पाएँ न पाएँ क्या मालूम,
जो धार से पीते है उनको, कासे का पिया कब भाता है।

हर बार बहाना करते हो, हर बार मुझे झुठलाते हो
पर शहर से मेरे गुज़रो तुम, तो मुझको पता चल जाता है।

पर्वत भी मिलेगा सागर में, सूरज भी कभी होगा ठण्डा,
हस्ती तो तेरी फिर है ही क्या, क्या सोच के तू इतराता है।

क्यों दोष किसी को देते हैं, क्यों नाम किसी का लेते हैं,
जिस सूत ने हम को जकड़ा है, वो सूत हमीं ने काता है।

#मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by अजय गुप्ता 'अजेय 12 hours ago

आदरणीय नीलेश जी, ग़ज़ल पर आने और अपनी बहुमूल्य सलाह देने के लिए आपका आभार। आपके सुझाव उपयोगी हैं और इनको ध्यान में रखकर ग़ज़ल में सुधार पर काम चल रहा है। एक बार फिर आपका बहुत आभार

Comment by Nilesh Shevgaonkar on Wednesday

आ. अजय जी 
इस बहर में लय में अटकाव (चाहे वो शब्दों के संयोजन के कारण हो) खल जाता है.
जब टूट चुका है दिल मेरा रख अपनी नसीहत अपने तक 
नुक़सान उठाकर मैं ख़ुश हूँ , क्या और किसी का जाता है.
.
संतोष की क़ीमत वो जाने, जो चैन गँवा कर पाता है.. चैन गंवा कर संतोष कैसे पाया जाएगा? संतोष परिस्थिति से साम्य के बिना नहीं होता और चैन गंवाना परिस्थिति से विद्रोह है.
.
आज़ाद परिंदे पिंजरे में, जी पाएँ न पाएँ क्या मालूम,
जो धार से पीते है उनको, कासे का पिया कब भाता है।.. पंछी/ पिंजरे का धार से सीधा कोई सम्बन्ध कभी देखा नहीं है ..ऐसा कोई रूपक या इस्तिआरा भी नज़र से नहीं गुज़रा है . पुनर्विचार की आवश्यकता है. 
पर्वत भी मिलेगा मिट्टी में ....सूरज भी कभी बुझ जाएगा 

थोडा और समय दीजिये इस ग़ज़ल को .. 
सादर 

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