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मिथिलेश वामनकर's Blog (125)

दोहे-क़िस्त तीन

मुट्ठी में कब रेत भी, ठहरी मेरे यार।

चार पलों की जिंदगी, बाकी सब बेकार।।

 

जीवन की इस भीड़ में, सबके सब अनजान।

सिर्फ फलक ही जानता, तारों की पहचान।।

 

पाप पुण्य जो भी किया, सब भोगे इहलोक।

जाने कैसा कब कहाँ, होगा वो परलोक।।

 

आँखों ने जाहिर किया, कुछ ऐसा अफ़सोस।

आँखों पे कल धुंध थी, अब आँखों में ओंस।।

 

व्यर्थ मशालें ज्ञान की, प्रेम पिघलते दीप।

बिखरी है हर भावना, सिमटा दिल का सीप।।

 

सागर से…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 3:00am — 11 Comments

दोहे-क़िस्त दो

घर बदला, बदला जहां, बदले बदले लोग ।

अर्थ बदलते देखिए, क्या जोगी क्या जोग ।।

 

पलकों से उतरी जरा, धीरे धीरे रात ।

शामों की दहलीज पे, साए करते बात ।।

 

धुंधली धुधली हो गई, यादों की सौगात।

अफरातफरी वक़्त की, ये कैसे हालात।।

 

आवाजे होती गई, सब की जब खामोश।

शहर बिचारा क्यों मढ़े, सन्नाटे को दोष।।

 

ढलती शामों में किया, पीपल ने संतोष।

बिछड़ गई परछाइयाँ, सूरज भी खामोश ।।

 

हमने जब से ले लिया, इश्क़…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 3:00am — 8 Comments

दोहे-क़िस्त एक

मिलना तो दिल खोल के, मिल लो मेरे यार।

छोटी सी है ज़िन्दगी, तुम छोड़ो तकरार ।।

 

बहुत दिनों से गर्म है, सपनो के बाज़ार ।

बदल रहे है देखकर, रिश्तो के आसार।।

 

आँखे भर भर आ गई, छूकर उनके पाँव।

यादों में फिर छा गया, बरगद वाला गाँव।।

 

मौसम की पदचाप भी, गुमसुम और उदास।

आँगन की तुलसी डरी, सहमा देख पलाश ।।

 

रहने दो गुल बाग में, गुंचा और बहार ।

हरियाली का इस तरह, ना बाटो सिंगार।।

 

मालिक के  दीदार…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 2:30am — 12 Comments

अपना घर (नज़्म)

वक़्ते-पैदाइश पे यूं

मेरा कोई मज़हब नहीं था

गर था मैं,

फ़क़त इंसान था, इक रौशनी था

बनाया मैं गया मज़हब का दीवाना

कि ज़ुल्मत से भरा इंसानियत से हो के बेगाना

मुझे फिर फिर जनाया क्यूँ

कि मुझको क्यूँ बनाया यूं

पहनकर इक जनेऊ मैं बिरहमन हो गया यारो

हुआ खतना, पढ़ा कलमा, मुसलमिन हो गया यारों

कहा सबने कि मज़हब लिक्ख

दिया किरपान बन गया सिक्ख

कि बस ऐसे धरम की खाल को

मज़हब के कच्चे माल को…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 2:00am — 22 Comments

बह्र-ए-रमल

2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122

रात की काली सियाही जिंदगी में छा गई तो आप ही बतलाइये हम क्या करेंगे

चार दिन की चांदनी जब आदमी को भा गई तो आप ही समझाइये हम क्या करेंगे

जन्नतों के ख्वाब सारे टूटकर बिखरे हुए है, बस फ़रिश्ते रो रहे इस बेबसी को

दो जहाँ के सब उजालें तीरगी जो खा गई तो आप ही फरमाइये हम क्या करेंगे…

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Added by मिथिलेश वामनकर on November 29, 2014 at 10:30pm — 21 Comments

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