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Sushil Sarna's Blog (880)

देर तक ....

देर तक .....

जब तुम 

जब अंतर तट पर 

अपने समर्पण की सुनामी 

लेकर आये थे 

मेरी देह 

कंपकपाई थी

देर तक

जब तुम ने 

रक्ताभ अधरों को 

तृषा का 

सन्देश दिया था 

मेरे अधर की 

हर रेख 

मुस्कुराई थी

देर तक

जब तुम ने 

अपनी बंजारी नज़रों से 

मुझे निहारा था 

मेरी निशा

तुम्हारी बंजारन बन 

थरथराई थी

देर तक

जब तुम 

मेरी प्रतीक्षा की 

प्रथम आहट बने थे 

मेरी…

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Added by Sushil Sarna on February 26, 2017 at 12:30pm — 2 Comments

कुछ फ़र्द

कुछ फ़र्द मंच की नज़्र :

न सही तेरी नज़रों को मुहब्बत की तमन्ना मगर !

तेरी नज़रें , नज़रों की हमराज़ तो बन सकती थीं !!1!!

माना करीबी दिल को ख़ुशगवार लगती है !

मगर दूरी में भी कम दिलकशी नहीं होती !!2!!



जाने क्यूँ आ गयी शर्म घटाओं को आज !

शायद किसी ने रुख़ पे ज़ुल्फें बिखेर दीं !!3!!



क्यूँ अँधेरे भी उजले से लगने लगे !

शायद, प्यार रूठा लौट आया है !!4!!



आये न थे तो चश्म तर-बतर थी !

गए पलट के तो कयामत ढा गए…

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Added by Sushil Sarna on February 25, 2017 at 2:00pm — 2 Comments

एक सूरज ...

एक सूरज ...

सो गया

थक कर

सिंधु के क्षितिज़ पे

ख़ुदा के दर पे

ज़मीं के

बशर के लिए

चैन-ओ-अमन की

फरियाद लिए

जलता हुआ

एक सूरज

संचार हुआ

नव जीवन का

भर दिया

ख़ुदा के नूर को

ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे में

करता रहा भस्म

स्वयं को

स्वयं की अग्नि में

बशर के

चैन-ओ-अमन

के लिए

एक सूरज

रो पड़ा

देखकर

बशर की फितरत

नूरे बख़्शीश को

समझ न सका

ग़ुरूर में…

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Added by Sushil Sarna on February 21, 2017 at 2:04pm — 9 Comments

नज़्र ....

नज़्र ....

सहर हुई
तो ख़बर हुई
शब्
सिर्फ
बातों को
नज़्र हुई
रहते ख़ामोश
नज़रों को
जुबां देते
रात यूँ ही
नज़रों के
दरमियाँ गुज़ार देते
लम्स करते बयाँ
सफर निगाहों का
फिर

न सहर की
खबर होती
न शब्
लफ़्ज़ों को
नज़्र होती

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on February 20, 2017 at 1:34pm — 12 Comments

बे-आवाज़ ....

बे-आवाज़ ....

कहां होती है
रिश्ते के
टूटने की
आवाज़
बस
सिसकता है
देर तक
रुखसारों की ढलानों पर
खारी लकीरों पर
सोया
सोज़ में डूबा
बीते लम्हों का
इक साज़
बे-आवाज़

सुशील सरना

मौलिक एवम अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on February 17, 2017 at 9:10pm — 10 Comments

ये ,कैसा घर है ....

ये ,कैसा घर है ....

ये

कैसा घर है

जहां

सब

बेघर रहते हैं



दो वक्त की रोटी

उजालों की आस

हर दिन एक सा

और एक सी प्यास

चेहरे की लकीरों में

सदियों की थकन

ये बाशिंदे

अपनी आँखों में सदा

इक उदास

शहर लिए रहते हैं

ये

कैसा घर है

जहां सब

बेघर रहते हैं

उजालों की आस में

ज़िन्दगी

बीत जाती है

रेंगते रेंगते

फुटपाथ पे

साँसों से

मौत जीत जाती है

बेरहम सड़क है…

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Added by Sushil Sarna on January 29, 2017 at 7:30pm — 13 Comments

ये अश्क ...

ये अश्क ...

नहीं होता

चेहरा

दुःख का

कोई

नहीं होती उम्र

मौत की

कोई

ज़िन्दगी

खुशियों का

आसमां नहीं

ग़मों की

धूप है

ज़िन्दगी की धूप में

ख़ुशी तो बस

छाया का नाम है

पल भर का सुकून है

फिर गमों की

दास्तान है

यादों के

खंज़र हैं

कुछ आँखों से

बाहर हैं

कुछ आँखों के

अंदर हैं

कह गए

बह के

और

कुछ अभी

दिल में…

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Added by Sushil Sarna on January 24, 2017 at 6:18pm — 6 Comments

देर तक .....

देर तक .....

देर तक

मैं मयंक को

देखती रही

वो वैसा ही था

जैसा तुम्हारे जाने से

पहले था

बस

झील की लहरों पे

वो उदास अकेला

तैर रहा था

देर तक

मैं उस शिला पर

बैठी रही

जहां हम दोनों के

स्पर्शों ने सांसें ली थीं

शिला अब भी वैसी ही थी

जैसी

तुम्हारे जाने से पहले थी

बस

मैं

और थे मेरी देह में

समाहित

तुम्हारे अबोले स्पर्श

देर तक …

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Added by Sushil Sarna on January 20, 2017 at 1:30pm — 6 Comments

इंतज़ार ...

इंतज़ार ...



छोड़िये साहिब !

ये तो बेवक़्त

बेवज़ह ही

ज़मीं खराब करते हैं

आप अपनी उँगली के पोर

इनसे क्यूं खराब करते हैं

ज़माने के दर्द हैं

ज़माने की सौगातें हैं

क्योँ अपनी रातें

हमारी तन्हाईयों पे

खराब करते हैं

ज़माने की निगाह में

ये

नमकीन पानी के अतिरिक्त

कुछ भी नहीं

रात की कहानी

ये भोर में गुनगुनायेंगे

आंसू हैं,निर्बल हैं

कुछ दूर तक

आरिजों पे फिसलकर

खुद-ब-खुद ही सूख जायेंगे

हमारे दर्द…

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Added by Sushil Sarna on January 18, 2017 at 6:34pm — 13 Comments

माटी का दिया ...

माटी का दिया ......

जलता रहा
इक दिया
अंधेरों में
रोशनी के लिए

तम
अधम
करता रहा प्रहार
निर्बल लौ पर
लगातार

आख़िर
हार गया वो
धीरे धीरे
कर लिया एकाकार
अंधकार से


रह गया शेष
बेजान
माटी का दिया
फिर जलने को
अन्धकार में
गैरों के लिए

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 15, 2017 at 4:24pm — 8 Comments

स्मृति के आँगन में ...

स्मृति के आँगन में ...

तुम सवालों को

सवाल क्योँ नहीं रहने देती

अपनी मौनता से

तुम नैन व्योम में बसी

अतृप्त तृष्णा से

अपने कपोलों पर

क्योँ गीले काजल से श्रृंगार

कर अनुत्तरित प्रश्नों का

उत्तर चाहती हो

क्योँ सुरभित मधु पलों को

अपने गीले आँचल में लपेट कर

स्मृति अंकुरों को

प्रस्फुटित होने का अवसर

देना चाहती हो

क्योँ मृदु चांदनी में

उदास निशा से

टूटे तारे से माँगी इच्छा के…

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Added by Sushil Sarna on January 12, 2017 at 1:00pm — 10 Comments

अधूरी प्रीत से ....

अधूरी प्रीत से ....

लब
खामोश थे
पलकें भी
बन्द थीं
कहा
मैंने भी
कुछ न था
कहा
तुमने भी
कुछ न था
फिर भी
इक
अनकहा
नन्हा सा लम्हा
आँखों की हदें तोड़
देर तक
मेरी हथेली पे बैठा
मुझे
मिलाता रहा
मेरे अतीत से
अधूरी तृषा में लिपटी
अधूरी प्रीत से

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 10, 2017 at 2:22pm — 4 Comments

हिम बसंत ...

हिम बसंत ...

प्रथम प्रणय का
प्रथम पंथ हो
हिय व्यथा का
तुम ही अंत हो
शिशिर ऋतु का
शिशिरांशु हो
विरह पलों का
शिशिरांत हो
शीत पलों की
मधुर सिहरन हो
नयन सिंधु का
मौन कंपन्न हो
मधु पलों में
मेरे प्रिय तुम
मधु स्मृतियों का
हिम बसंत हो

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 9, 2017 at 8:40pm — 8 Comments

सच ,लगने लगा पराया ...

सच ,लगने लगा पराया ...

न मेरा

आना झूठ था

न तेरा

जाना झूठ था

दूर जाने का मुझसे

बस बहाना

झूठ था

जीती रही

जिस शब् को

हकीकत मानकर

सहर की शरर पे सोया

वो

अफ़साना झूठ था

बादे सबा

में लिपटी

सदायें

यूँ तो आयी थीं

तेरे बाम से मगर

उसमें छुपा

हिज़्रे ग़म को

बहलाने का

तराना झूठ था

इक झूठ

तूने जिया

इक झूठ

मैंने जिया

न सच

तुझे भाया…

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Added by Sushil Sarna on January 6, 2017 at 2:00pm — 16 Comments

ख़्वाब का माहताब ....

ख़्वाब का माहताब ....

तुम्हारे

अंधेरों में

मेरे हिस्से के

उजाले

तुम्हारी मुहब्बत की

गिरफ़्त में

बे-आवाज़

सिसकते रहे

और तुम

मेरी चश्म से

शीरीं शहद से

लम्हों को

कतरों में समेटे

बहते रहे

मेरा ज़िस्म

तुम्हारे लम्स

की हज़ारों

खुशबुओं के  

कफ़स में

सांस लेता रहा

आफ़ताब की शरर ने

उम्मीद की दहलीज़ को

हक़ीक़त की

आतिश से

ख़ाक में…

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Added by Sushil Sarna on January 5, 2017 at 1:30pm — 17 Comments

चांदनी ... (क्षणिका)

चांदनी ... (क्षणिका)

तमाम शब्
माहताब
अर्श पर
मुझे

घूरता रहा
रकीबों सा

निचोड़ता रहा
मन की झील पर
मैं
उसकी
चांदनी

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 3, 2017 at 5:40pm — 23 Comments

ज़िन्दगी ..... (क्षणिका )


ज़िन्दगी ..... (क्षणिका )

हो गया
खामोश बशर
उलझनें
सुलझाने के
फेर में

एक
मकड़ी से
शर्मिंदा
हो गयी
ज़िन्दगी

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on December 30, 2016 at 2:50pm — 7 Comments

अपनों से ...

अपनों से  ... 

सपने
अक्सर
तारों की तरह
गिरकर
टूट जाते हैं

चीख उठते हैं
आँखों में
ख़ामोश आंसू
जब
अपने
अपनों से
रूठ जाते हैं

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on December 29, 2016 at 5:57pm — 6 Comments

कह्र....

कह्र ...

थक गयी है
लबों पे हंसी
शायद लब
आडम्बर का ये बोझ
और न सहन कर पाएंगे
संग अंधेरों के
ये भी चुप हो जाएंगे
कफ़स में कहकहों के
दर्द बेवफाई का
ये छुपा न पाएंगे
बावज़ूद
लाख कोशिशों के
ये
गुज़रे हुए
लम्हों की आतिश से
बंद पलकों से
पिघल कर
तकिये को
गीला कर जाएंगे
सहर की पहली शरर पे
रिस्ते ज़ख्मों का
कह्र लिख जाएंगे


सुशील सरना

मौलिक एवम अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on December 28, 2016 at 5:45pm — 14 Comments

अक्षय गीत ....

अक्षय गीत ....

मैं हार कहूँ या जीत कहूँ ,या टूटे मन की प्रीत कहूँ

तुम ही बताओ कैसे प्रिय ,मैं कोई अक्षय गीत कहूँ

मैं पग पग  आगे  बढ़ता  हूँ

कुछ भी कहने से डरता  हूँ

पीर हृदय की कह  न  सकूं

बन दीप शलभ मैं जलता हूँ

शशांक का विरह गीत कहूँ,या रैन की निर्दयी रीत कहूँ

तुम ही बताओ  कैसे  प्रिय , मैं  कोई  अक्षय  गीत कहूँ

अतृप्त तृषा  है. घूंघट  में

अधरों की हाला प्यासी है

स्वप्न नीड़  पर  नयनों  के…

Continue

Added by Sushil Sarna on December 22, 2016 at 6:00pm — 19 Comments

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