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All Blog Posts Tagged 'व्यंग्य' (58)

व्यंग्य - भ्रष्टाचार की आप बीती

देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार के बारे में मैं सोच ही रहा था कि अचानक भ्रष्टाचार प्रगट हुआ और मुझे अपनी आप-बीती सुनाने लगा। मुझे लगा, भ्रष्टाचार जो कह रहा है, वह अपनी जगह पर सही है। भ्रष्टाचार कह रहा था कि देश में काला पैसा बढ़ रहा है और कमीशनखोरी हावी हो रही है, भला इसमें मेरा क्या दोष है ? दोष तो उसे देना चाहिए, जो भ्रष्टाचार के नाम को बदनाम किए जा रहे हैं। केवल भ्रष्टाचार पर ही उंगली उठाई जाती है, एक भी दिन ऐसा नहीं होता कि कोई भ्रष्टाचारियों पर फिकरी कसे और देश के माली हालात के लिए जिम्मेदार… Continue

Added by rajkumar sahu on October 8, 2011 at 11:20pm — No Comments

व्यंग्य - अन्ना जी, आप भी...

‘मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना’, यहां भी अन्ना, वहां भी अन्ना’, ‘अन्ना नहीं ये आंधी है, नए भारत का गांधी है’, ऐसे ही कुछ नारों से पिछले दिनों रामलीला मैदान गूंजायमान था। तेरह दिनों तक चले अनशन के बाद अन्ना, गांधी जी के अवतरण कहेे जा रहे हैं। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि दुनिया में दूसरा गांधी, कोई हो नहीं सकता। खैर, अन्ना के आंदोलन के बाद दुनिया में एक अलग लहर चली है, आजादी की दूसरी लड़ाई की।

हमारे अन्ना अब चुनाव लड़ने की नहीं, लड़वाने की बात कह रहे हैं। वे कहते हैं कि ऐसे युवा जिनकी छवि बेदाग हो,… Continue

Added by rajkumar sahu on October 1, 2011 at 11:39pm — No Comments

व्यंग्य - गरीबी के झटके

देखिए, गरीबों को गरीबी के झटके सहने की आदत होती है या कहें कि वे गरीबी को अपने जीवन में अपना लेते हैं। पेट नहीं भरा, तब भी अपने मन को मारकर नींद ले लेते हैं। गरीबों को ‘एसी’ की भी जरूरत नहीं होती, उसे पैर फैलाने के लिए कुछ फीट जमीन मिल जाए, वह काफी होती है। गरीब, दिल से मान बैठा है कि अमीर ही उसका देवता है, चाहे जो भी कर ले, उसमें उसका बिगड़े या बने। गरीबी का नाम ही बेफिक्री है। फिक्र रहती है तो बस, दो जून रोटी की। रोज मिलने वाले झटके की परवाह कहां रहती है ?

गरीबों को झटके पर झटके लगते हैं।… Continue

Added by rajkumar sahu on September 29, 2011 at 11:54pm — No Comments

व्यंग्य - ‘मौन-मोहन’ से मिन्नतें

हे ‘मौन-मोहन’, आपको सादर नमस्कार। आप इतने निराश मन से क्यों अपना राजनीतिक चक्र घुमा रहे हैं। जिस ताजगी के साथ आपने देश में नई बुलंदी को छू लिए और लोगों के दिल में समाए, आखिर अब ऐसा क्या हो गया, जो आप एकदम से थके-थके से नजर आ रहे हैं। जिस जनता-जनार्दन के सिर पर अपना ‘हाथ’ होने की दुहाई देकर आप सत्ता तक पहुंचे, उसी हाथ की आज क्यों जनता से दूरी बढ़ गई है। ’आम आदमी के साथ’ का जो नारा था, वो तो शुरू से ही साथ छोड़ गया है। निश्चित ही आपकी छवि, दबे-कुचले जनता के बीच अच्छी है, लेकिन आपके द्वारा उन्हीं… Continue

Added by rajkumar sahu on September 27, 2011 at 3:15pm — No Comments

व्यंग्य - महंगाई ‘डायन’ है कि सरकार

महंगाई पर हम बेकार की तोहमत लगाते रहते हैं। अभी जब बाजार में सामग्रियां सातवें आसमान में महंगाई की मार के कारण उछलने लगी, उसके बाद महंगाई एक बार फिर हमें ‘डायन’ लगने लगी। इस बार तंग आकर महंगाई ने भी अपनी भृकुटी तान दी और कहा कि उसने कौन सी गलती कर दी, जिसके बाद उसे ऐसी जलालत बार-बार झेलनी पड़ती है। महंगाई को बार-बार की बेइज्जती बर्दास्त नहीं हो रही है। उसने सोचा, अब वह कहीं और जाकर अपनी बसेरा तय करेगी, मगर सरकार मानें, तब ना।

सरकार ने जैसे दंभ भर लिया हो कि जो भी हो जाए, महंगाई को साथ रखना… Continue

Added by rajkumar sahu on September 25, 2011 at 1:13am — 1 Comment

जरा इधर भी करें नजरें इनायत

1. समारू - ड्रीम गर्ल हेमामालिनी ने गुजरात पहुंचकर कहा - नरेन्द्र मोदी विकास के लिए जाने जाते हैं।

पहारू - और गोधरा कांड के लिए...



2. समारू - गृहमंत्री कहते हैं - छत्तीसगढ़ के एनजीओ नक्सलियों की मदद कर रहे हैं।

पहारू - ये तो वही हुआ, हमारी बिल्ली और हमहीं से म्याऊ ???



3.समारू - अमरकंटक स्थित सोनकुण्ड में एक साधु के समाधि लेने की खबर है।

पहारू - नित्यानंद के ‘नित्य-आनंद’ की खबर अब सुनने में नहीं आ रही है।



4. समारू - छग के आधे एनजीओ, नेताओं व अफसरों… Continue

Added by rajkumar sahu on September 19, 2011 at 9:00pm — No Comments

व्यंग्य - उपाधि मिलने की वाहवाही

‘उपाधि’ देने की परिपाटी बरसों से है। बदलते समय के साथ यह परिपाटी अब पूरे रंग में है। पहले आप कुछ नहीं होते हैं। उपाधि मिलते ही आप रातों-रात उपलब्धि की सभी उंचाई पार लगा लेते हैं। हर तरफ बस वाहवाही रहती है। जब हर कहीं सम्मान मिले और नाम के आगे चार चांद लग जाए। ऐसी स्थिति में कौन नहीं चाहेगा, किसी उपाधि से सुशोभित होना। उपाधि पाने का कीड़ा जब काटता है, उसके बाद उपाधि छिनने की करामात भी करनी पड़ती है। माथे पर उपाधि की मुहर लगते ही एक अलग पहचान बनती है। आने वाली पीढ़ी भी उपाधि के सहारे ही जानती हैं कि… Continue

Added by rajkumar sahu on September 1, 2011 at 1:32am — 2 Comments

व्यंग्य - अब लगा भी दो शतक

हमारा देश अनंत विविधताओं से ओत-प्रोत है। 33 करोड़ देवी-देवताओं से हममें से हर कोई कुछ न कुछ मांगते रहता है। भगवान भी देर से ही सही, अपनी आराधना करने वालों की सुध लेते ही हैं। तभी तो मंदिरोें में मत्था टेकने वालों में भगदड़ मचती रहती है। भगवान हममें से कइयों को छप्पर फाड़कर देता है, ये अलग बात है कि कुछ को छप्पर भी नसीब नहीं होता। कोई दो वक्त की रोटी को ईश्वर की असीम देन कहता है तो एक दूसरा, उसकी अहमियत को नहीं समझता, फिर भी भगवान उस पर मेहरबान हुए रहते हैं।

हम भगवान से मांगते रहते हैं,…

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Added by rajkumar sahu on August 31, 2011 at 1:22am — No Comments

व्यंग्य - देश को समर्पित कर दें ‘भ्रष्टाचार’

भ्रष्टाचार का जिन्न एक बार फिर बाहर आ गया है और इस बार वह सब पर भारी नजर आ रहा है। सत्ता के रसूख का दंभ भरने वाली सरकार भी डरी-सहमी हैं। आधुनिक भारत के ‘गांधी’ के नए अवतरण के बाद ‘भ्रष्टाचार का भूत’ को देश से भगाने के लिए ‘अनशन यज्ञ’ का सहारा लिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि यह नए भारत की ‘अगस्त क्रांति’ है। हालात ऐसे बन गए हैं, जो भी भ्रष्टाचार की खिलाफत में मुंह मोड़ेगा, वह क्रांति की चपेट में आ जाएगा और देश में इस क्रांति से हजारों-हजार बावले नजर आ रहे हैं, ‘हजारे’ के साथ। भले ही कई बरसों…

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Added by rajkumar sahu on August 18, 2011 at 1:15am — No Comments

व्यंग्य - अनजाने चेहरों की दोस्ती

यह बात अधिकतर कही जाती है कि एक सच्चा दोस्त, सैकड़ों-हजारों राह चलते दोस्तों के बराबर होता है। यह उक्ति, न जाने कितने बरसों से हम सब के दिलो-दिमाग में छाई हुई है। दोस्ती की मिसाल के कई किस्से वैसे प्रचलित हैं, चाहे वह फिल्म ‘शोले’ के जय-वीरू हों या फिर धरम-वीर। साथ ही भगवान कृष्ण-सुदामा की दोस्ती की प्रगाढ़ता जग जाहिर है। ऐसी दोस्ती की कहानियां धर्म ग्रंथों में कई मिल जाएंगी। यह भी कहा जाता है कि कलयुग में जितना हो जाए, बहुत कम है। कुछ भी हो जाए तो बस ‘कलयुगी’ उदाहरण दिया जाता है। कलयुग में बहुत… Continue

Added by rajkumar sahu on August 4, 2011 at 11:17am — No Comments

व्यंग्य - आओ धर्मशाला में उम्र गुजारें !

जैसा नाम ही है, धर्मशाला। देखिए, इस लिहाज से मानव धर्म का कुछ तो काम होगा ही। अब यहां राजनीतिक गोटी बिछने वाली धर्मशाला की बात कर लें, क्योंकि इन दिनों देश में धर्मशाला की नई वेरायटी पर बहस शुरू हो गई है और ‘राजनीतिक धर्मशाला’ की खासियत मुझे पता नहीं है, क्योंकि कभी मेरा पाला नहीं पड़ा है। वैसे भी इस धर्मशाला में हर समय जिस तरह से हुज्जतबाजी मची रहती है, उसके बाद मेरा मन नहीं कहता कि चले जाओ और अपने को कोसने के काबिल बनाओ।

पिछले दिनों जिन्न की बोतल से ‘राजनीतिक धर्मशाला’ सामने आई। एक… Continue

Added by rajkumar sahu on July 27, 2011 at 12:05pm — No Comments

व्यंग्य - कृपापात्र आशीर्वाद का प्रतिफल

बड़ों के आशीर्वाद की अहमियत जमाने से है और जमाने तक रहेगा, क्योंकि बड़ों की कृपा बिना संभव ही नहीं कि आप फर्श से अर्श तक पहुंच पाएं। अधिकतर यह सुनने को मिलते रहता है कि फलां के आशीर्वाद से ही गगनचुंबी सफलता मिली और एक नई इबारत लिखने का अवसर मिला। मैं भी समझता हूं कि आशीर्वाद की भूमिका हर जगह है। इतना मान लीजिए कि आशीर्वाद है, तो आप हैं। इसके इतर बात करें तो एक आशीर्वाद का दस्तूर भी बरसों से चली आ रही है, वह है कृपापात्र आशीर्वाद। इसके बगैर तो आप एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकते, सफलता की बात सोचने के… Continue

Added by rajkumar sahu on July 20, 2011 at 9:23pm — No Comments

भ्रष्टाचार है कि मुरब्बा

देखो भाई, यदि आपने भ्रष्टाचार नहीं किया हो तो लगे हाथ यह सौभाग्य पा लो और बहती गंगा में हाथ धो लो। फिर कहीं समय निकल गया तो फिर लौटकर नहीं आने वाला है। भ्रष्टाचार की अभी खुली छूट है, जब जैसा चाहो, कर सकते हो। बाद में न जाने मौका मिलेगा कि नहीं, कहीं पछताने की नौबत न आए। फाइलों की सुरंग से बारी-बारी एक-एक भ्रष्टाचार का दानव बाहर निकलकर आ रहा है, ये इतने शक्तिशाली हैं कि इन पर हाथ डालने कतराना पड़ता है और जब दबाव में उसकी कमीज से मक्खी उड़ा भी लिए और वह जेल की चारदीवारी में पहुंच गया तो वहां भी मौज… Continue

Added by rajkumar sahu on July 18, 2011 at 11:17pm — No Comments

व्यंग्य - ले लीजिए स्वर्णकाल का आनंद

व्यंग्य - ले लीजिए स्वर्णकाल का आनंद यह बात सही है कि हर किसी की जिंदगी में कभी न कभी स्वर्णकाल आता ही है। उपर वाला निश्चित ही एक बार जरूर छप्पर फाड़कर देता है, ये अलग बात है कि कुछ लोग उस छप्पर में समा जाते हैं तो कुछ लोग पूरे छप्पर को समा लेते हैं। कर्म तो प्रधान होना चाहिए, मगर भाग्य से भरोसा भी नहीं उठना चाहिए, क्योंकि यह तो सभी जानते हैं, जब स्वर्णकाल का दौर चलता है तो फिर फर्श से अर्श की दूरी मिनटों में तय होती है, मगर जब संक्रमणकाल चलता है तो फिर अर्श से फर्श तक आने में पल भर नहीं…

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Added by rajkumar sahu on July 12, 2011 at 1:20am — 1 Comment

श्रेय लेने का शुरूर

अक्सर देखा जाता है कि जब कोई उल्लेखनीय कार्य होता है तो उसका श्रेय लेने की होड़ मच जाती है और स्थिति मारामारी की बन जाती है। श्रेयमिजाजी लोग खास मिसाल पेश कर लेते हैं, तब वह इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने भी उतारू हो जाता है। भले ही वह किसी भी रूप में हों ? आज जहां देखें वहां, केवल श्रेय लेने की होड़ दिखती है। ऐसा लगता है, जैसे गली-गली में ‘श्रेय की दुकान’ खुल गई है और वहां से जो जब चाहे, तब ‘श्रेय’ खरीदकर ले लाए। जैसे, बाजार से हम सेब खरीद कर ले आते हैं। फिर अपना एकाधिकार जमाने में उसे कहां देर… Continue

Added by rajkumar sahu on July 4, 2011 at 12:28am — No Comments

व्यंग्य - बाबागिरी का कमाल

बाबागिरी का कमाल अभी चहुंओर छाया हुआ है। अब लोगों को समझ में आ गया है, गांधीगिरी में भलाई नहीं है, बल्कि बाबागिरी से ही तिजोरी भरी जा सकती है। गांधीगिरी से केवल आत्मा को संतुष्ट किया जा सकता है, मगर बाबागिरी में करोड़ों कमाए बगैर, मन की धनभूख शांत नहीं होती। जब से इस बात का खुलासा हुआ है कि देश का एक बड़ा बाबा महज कुछ बरसों में करोड़पति बन गया तथा अभी अरबों की संपत्ति का और राज खुलना बाकी है, उसके बाद तो हम जैसे लोग बाबागिरी की तिमारदारी में लगे हुए हैं। बरसों कलम खिसते रहो, लेकिन इतना तय है कि इन… Continue

Added by rajkumar sahu on June 15, 2011 at 4:37pm — No Comments

अट्टालिका पर अटका हुआ बयान

अट्टालिका पर अटका हुआ बयान

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रतन टाटा ने मुकेश अम्बानी की उस शानदार अट्टालिका पर आश्चर्य व्यक्त किया,जिसमें वह सपरिवार रहते हैं और जिसकी कीमत इतनी है कि दस डिजिट के कैल्कुलेटर में भी न समाये.उन्होंने मुकेश अम्बानी को संवेदनशील बनने की सलाह देते हुए कहा कि अकूत धन सम्पदाधारी लोगों को जनसामान्य के  जीवन स्तर में सुधार के लिए कुछ न कुछ ज़रूर करना चाहिये.

रतन टाटा बाद में अपने बयान से यह कहते हुए मुकर गए कि उनके कहे को मीडिया ने तोडमरोड कर शरारतपूर्ण अंदाज़ में… Continue

Added by nirmal gupt on May 28, 2011 at 12:48pm — 1 Comment

व्यंग्य - मुफ्तखोरी की बीमारी

बीमारी की बात करते हैं तो हर व्यक्ति, कोई न कोई बीमारी से ग्रस्त नजर जरूर आता है। बीमारी की जकड़ से यह मिट्टी का शरीर भी दूर नहीं है। सोचने वाली बात यह है कि बीमारियों की तादाद, दिनों-दिन लोगों की जनसंख्या की तरह बढ़ती जा रही है। जिस तरह रोजाना देश की आबादी बढ़ती जा रही है और विकास के मामले में हम विश्व शक्ति बनें न बनें, मगर इतना जरूर है कि यही हाल रहा तो जनसंख्या की महाशक्ति अवश्य कहलाएंगे। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही बीमारियां भी हमारे शरीर के जरूरी हिस्से होती जा रही हैं। जैसे अलग-अलग तरह से लोगों… Continue

Added by rajkumar sahu on May 7, 2011 at 11:50am — No Comments

व्यंग्य - पदपूजा का आभामंडल

पदपूजा का आभामंडल हर किसी को भाता है। जिसे देखो, वह पद के पीछे, अपना पग हमेशा आगे रखना चाहता है। मैं तो यह मानता हूं कि जिनके पास कोई बड़ा पद नहीं है, समझो वह कुछ भी नहीं है। उसकी औकात उतनी है, जितनी सरकार की उंची कुर्सी में बैठे सत्तामद के मन में, जनता की है। पदपूजा की कहानी देखा जाए तो काफी पुरानी है। ऐसा लगता है, जैसे पद पूजा की परिपाटी कभी खत्म नहीं होने वाली है। पद का गुरूर भी बड़ा अजीब है, किसी को कोई बड़ा पद मिला नहीं कि वह सातवें आसमान में हवाईयां भरने लगता है। वह सोचता है, जैसे दुनिया… Continue

Added by rajkumar sahu on May 3, 2011 at 1:39am — No Comments

व्यंग्य - टेक्नालॉजी का फसाना

सबसे पहले आपको बता दूं कि औरों की तरह मैं भी तकनीक की टेढ़ी नजर से दूर नहीं हूं। तकनीक के फायदे कई हैं तो नुकसान तथा फजीहत भी मुफ्त में मिलती हैं। वैसे मेरे पास न तो विरासत में मिली संपत्ति है और न ही मैंने इतनी अकूत संपत्ति जुटाई है, जिससे जिंदगी बड़े आराम से गुजरे। मेरा तो ऐसा हाल है, जैसे बिना सिर खपाए कुछ बनता ही नहीं, मगर पिछले दिनों से इस बात को लेकर चिंतित हूं कि मैं रातों-रात लखपति क्या, करोड़पति से अरबपति बनते जा रहा हूं। दरअसल, मैंने सोचा कि जब बड़े शहरों में तकनीक की खुमारी छाई हुई है…

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Added by rajkumar sahu on April 24, 2011 at 1:05am — No Comments

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