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नाथ सोनांचली's Blog – October 2017 Archive (5)

बशीर बद्र साहब की जमीन पर एक तरही ग़ज़ल

अरकान-: मफ़ाइलुन फ़्इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन



नया ज़माना नया आफ़ताब दे जाओ

मिटा दे जुर्म जो वो इन्क़िलाब दे जाओ



हज़ार बार कहा है जवाब दे जाओ,

मैं कितनी बार लुटा हूँ हिसाब दे जाओ||



मुझे पसंद नही मरना इश्क़ में यारो,

मुझे है शौक़ नशे का शराब दे जाओ||



वो कह रहे हैं खड़े होके बाम पर मुझ से,

तमाशबीन बहुत हैं नक़ाब दे जाओ ||



करम करो ये मेरे हाल पर चले जाना

*उदास रात है कोई तो ख़्वाब दे जाओ*||



अगर जगाना है सोए हुओं को ऐ… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 25, 2017 at 1:31pm — 41 Comments

जिन्हें आदत पड़ी हर बात में आँसू बहाने क़ई (ग़ज़ल)

अरकान-: मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन



जिन्हें आदत पड़ी हर बात में आँसू बहाने की,

तमन्ना वो न पालें फिर किसी से दिल लगाने की



सर-ए-महफ़िल कभी पर्दा नहीं करता था वो ज़ालिम

तो फिर अब क्या ज़रूरत पड़ गई है मुँह छुपाने की



लिखूंगा बात जो सच हो बिना डर के ज़माने में,

यहीं इक शर्त थी ख़ुद से कलम अपनी उठाने की



ख़बर अपनी नहीं रहती मुझे, हालात ऐसे हैं

खबर क्यूँ पूछते हो फिर मियाँ सारे जमाने की



बना ख़ुद रास्ता अपना हुनर है तेरे हाथों… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 24, 2017 at 5:47am — 20 Comments

दीवाली (कामरूप छन्द, एक प्रयास)

दीपावली पर, ज्योत घर घर, अलौकिक सृंगार

वातावरण में, प्रभु चरण में, भक्ति का संचार

सब लोग पुलकित, बाल हर्षित, बाँटते उपहार

लड़ियाँ लगाते, सब सजाते, स्वर्ग सा घर द्वार



हर घर अटारी, खेत क्यारी, लौ दिखे चहुँओर

सारे नगर में, हर डगर में, पटाखों का शोर

दीपक जले जब, तब मिले सब, धरा औ आकाश

सद्भाव सुरभित, तन सुशोभित, हो कलुष का नाश



मौसम गुलाबी, दिल नवाबी, औ अमावस रात

अद्भुत समागम, दीप माध्यम, दे तमस को मात

जगमग सितारे, आज सारे, अचम्भित… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 23, 2017 at 5:42am — 9 Comments

कुछ यादें बचपन की

बीत गया जो बचपन अपना, वह भी एक जमाना था

पल में हँसना पल में रोना, पल पल इक अफसाना था



बारिश में कागज की नैया, भैया रोज बनाते थे

बागों में तितली के पीछे, हमको वह दौड़ाते थे

रोने की थी वजह न कोई, हँसने के न बहाने थे

कमी नहीं थी किसी चीज की, सारे पास खजाने थे



चिन्ता फिक्र न कोई कल की, हर मौसम मस्ताना था

पल में हँसना पल में रोना, पल पल इक अफसाना था



जिधर निकलते थे हम यारों उधर दोस्त मिल जाते थे

गिल्ली डंडा और कबड्डी, फिर हम वहीं जमाते… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 9, 2017 at 1:00pm — 11 Comments

मैं हुआ बूढ़ा मगर अनुभव हुआ कुछ भी नहीं (तरही ग़ज़ल)

अरकान- फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन



हर तरफ शिक़वा गिला है औऱ क्या कुछ भी नहीं

रात दिन की दौड़ में आख़िर मिला कुछ भी नहीं ||



इक नियम बदलाव का यारों सनातन सत्य है,

कल मिला है आज से पर राब्ता कुछ भी नहीं



ज़ीस्त का सच देख गोया बन्द मुट्ठी खुल गयी,

साथ अपने अंत में वह ले गया कुछ भी नहीं



बचपना लिपटा रहा ता---उम्र मुझसे इस क़दर,

मैं हुआ बूढ़ा मगर अनुभव हुआ कुछ भी नहीं



दूर होगी मुफ़लिसी यह सोचना तू छोड़ दे,

ये सियासी ख़्वाब… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 2, 2017 at 5:04am — 21 Comments

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