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Ravi Shukla's Blog – September 2015 Archive (3)

ग़ज़ल : लौट कर जब शाम को मैं घर गया

2122   2122  212

 

लौट कर जब शाम को मैं घर गया ,

निस्‍फ़ दफ़्तर  साथ में लेकर गया ।

 

आंख में देखी थकानों की नदी,

डूब कर उत्‍साह घर का मर गया ।

 

खेंच लो तुम भी तनाबें नींद की ,

चाँद खिड़की से हमें कह कर गया ।

 

बात जो मैं भूलना चाहूं वही ,

ध्‍यान भी उस बात पर अक्‍सर गया ।

 

जब गया तो वो सिंकदर या सखी ,

शान शौकत सब यहीं पर धर गया ।

 

क्‍या बताएं वक्‍़त की मज़बूरियां…

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Added by Ravi Shukla on September 28, 2015 at 6:06pm — 10 Comments

ग़ज़ल : जब कभी तनहाइयों का

2122      2122     2122    212

जब कभी तनहाइयों का आईना मुझको मिला ।

अपने अन्दर आदमी इक दूसरा मुझको मिला ।।

 

हमसुखन वो हमनफ़स वो हमसफ़र हमजाद भी ।

जान लूँ इस चाह में कब आशना मुझको मिला ।।

 

वक्ते रुखसत हाल उसका भी यही था दोस्तों ।

अक्स मेरा चश्मे नम पर कांपता मुझको मिला ।।

 

मंज़िलों से  और बेहतर हसरते मंज़िल लगे ।

लिख सकूं तफसील जिसकी रास्ता मुझको मिला ।।

 

जो बजाते खुद हुआ इल्मो अदब का आफ़ताब…

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Added by Ravi Shukla on September 22, 2015 at 3:20pm — 8 Comments

ग़ज़ल : हुई जो खबर नाम चलने लगा है

हुई जो ख़बर नाम चलने लगा है ।

ये सारा जहां  हमसे जलने लगा है ।।

 

यहां झूठ से सबको नफरत है फिर भी ।

है किसकी ये शह जो मचलने लगा है ।।

न तुम आग उगलो न मै ज़ह्र घोलूं  ।

ये सोचें लहू क्‍यूँ उबलने लगा है ।।

बुरे वक्त में लोग करते है जुर्रत ।

हुई शाम सूरज भी ढलने लगा है ।।

तुम्‍हें देखते ही  हमारी कबा से ।

उदासी का आलम पिघलने लगा है ।।

 

अज़ल से वही है ज़फ़ा का बहाना ।

 कि मौसम के…

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Added by Ravi Shukla on September 15, 2015 at 5:11pm — 26 Comments

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