अम्बर के दरीचों से फ़रिश्ते अब नहीं आते
न परियाँ आबशारों में नहाने को उतरती हैं
न बच्चों की हथेली पर कोई तितली ठहरती है
न बारिश की फुआरों में वो खुशियाँ अब बरसती हैं
सभी लम्हे सभी मंज़र बड़े बेनूर से हैं सब
मगर हाँ एक मंज़र है
जहां फूलों के हंसने की अदा महफूज़ है अब भी
जहाँ कलियों ने खिलने का सलीक़ा याद रखा है
जहां मासूमियत के रंग अभी मौजूद हैं सारे
वो मंज़र है मेरे हमदम
तुम्हारे मुस्कुराने का
- शेख…
ContinueAdded by saalim sheikh on July 5, 2016 at 4:21pm — 4 Comments
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