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हिन्दी कविता में छायावाद के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद - डा0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव

इस लेख का प्रेरणा स्रोत वह घटना है जिसमे मैंने हिन्दी के नवीन कवियों को इस बात की वकालत करते सुना की हिन्दी में छायावाद का सूत्रपात सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा हुआ I इस रहस्योद्घाटन पर मेरे कान खड़े हो गये I मुझे उसी क्षण जयशंकर प्रसाद के ‘झरना’ नामक काव्य की पंक्तियाँ याद आयीं-

    उषा  का  प्राची  में  अभ्यास, सरोरुह  का  सर  बीच  विकास  I
    कौन परिचय था ? क्या सम्बन्ध ? गगन मंडल में अरुण विलास ॥

    रहे  रजनी  मे  कहाँ  मिलिन्द ? सरोवर बीच खिला अरविन्द  ।
   कौन परिचय ? था क्या सम्बन्ध ? मधुर मधुमय मोहन मकरन्द

      हिन्दी के अध्येताओ को यह जानना चाहिए कि सन 1918 में प्रकाशित जयशंकर प्रसाद के काव्य ‘झरना से ‘ हिन्दी साहित्य में छायावाद का प्रादुर्भाव हुआ I यह प्रसाद के यौवन काल की रचना है और इसकी कविताएं 1914-17 ई०  के बीच रची गयी हैं I कवि  की प्रारंभिक रचना होने पर भी इसे छायावाद की प्रयोगशाला  का प्रथम आविष्कार  कहा जाता है  I ‘दृग जल सा ढला’ प्रसाद का यह झरना अपने परिवेश में  ऐसी उर्वर, प्रवाहमयी गहन अनुभूति और प्रतीकात्मक शिल्प को लेकर चला कि छायावाद के गहन सागर में ‘लहर’ सी आ गयी  I ध्यातव्य है की ‘लहर’‘ जयशंकर प्रसाद का द्वतीय गीतिकाव्य है जिसमे छायावादी प्रवृत्तियों का भरपूर विकास ‘ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे- धीरे ’ जैसे गीतों में  हुआ है I प्रसाद ने अपने ‘आंसू’ और ‘कामायनी’ प्रभृति काव्यो में खड़ी बोली की जो कमनीय, मधुर रस-धारा प्रवाहित की वह काव्य की  सिद्ध भाषा बन गई । परिणामस्वरुप वे छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखने वाले श्रेष्ठ कवि भी बने।

      छायावाद कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे एक परिभाषा मे बाँध दिया जाय . अंगरेजी साहित्य के romanticism का जो प्रभाव बंग साहित्य से होकर हिन्दी मे आया और उससे हिन्दी साहित्य में जो स्वछंददतावादी काव्यधारा  में प्रवाहित हुई उसे मुकुटमणि पाण्डेय ने ‘छायावाद’ का अभिधान दिया I  भावों के इस स्वछंद प्रभाव से हिन्दी काव्य में अनेक नवीन प्रवृत्तियां विकसित हुयी जिनका समग्र रूप छायावाद कहा जाता है I इन प्रवृत्तियों  के आईने मे प्रसाद की रचनाओ को देखने से उनके छायावादी स्वरुप का पता चलता है I  मसलन प्रसाद के काव्य में वैयक्तिक चिंतन का प्राधान्य है जो कवि को अंतर्मुखी भी बनाता है I प्रसाद का ‘आंसू’ काव्य इसका अन्यतम उदहारण है I  वे स्वयं अपनी व्यक्तिगत पीड़ा का स्वीकार करते है –

         जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छाई

          दुर्दिन में आंसू बनकर वह आज बरसने आयी

       छायावाद की दूसरी प्रमुख प्रवृत्ति है प्रकृति सौन्दर्य और प्रेम की व्यंजना I  जयशंकर प्रसाद ने अपने काव्यो में प्रकृति को आलम्बन और उद्दीपनके रूप में तो दिखाया ही  उसका मानवीकरण भी किया और एक नारी के रूप में भी देखा I   मानव के आंतरिक सौन्दर्य की परख भी प्रसाद ने प्रकृति के उपादानों में ही की I  आंसू काव्य का एक उदाहरण प्रस्तुत है –

         शशि मुख पर घूँघट डाले अंचल में दीप छिपाए

          जीवन की गोधूली में कौतूहल से तुम आये

      प्रसाद ने नारी के सौन्दर्य का बड़ा ही मर्यादित वर्णन किया है जो छायावाद की एक और विशेषता है I  रीतिकाल में नारी सौन्दर्य का अत्युक्तिपूर्ण  मांसल और भदेस वर्णन हुआ है पर छायावादी कवियों ने नारी को उचित सम्मान दिया I  ‘कामायनी’  मे प्रसाद ने नायिका श्रृद्धा का जो सौन्दर्य वर्णन किया है उसका मार्दव देखते ही बनता है  I यथा –

         नील  परिधान  बीच  सुकुमार खुल रहा मृदुल  अधखुला अंग

         किला ही ज्यों बिजली का फूल मेघ  वन  बीच  गुलाबी  रंग

        इसी प्रकार छायावाद की अन्य प्रवृत्तियाँ जैसे- रहस्यानुभूति, तत्व चिंतन , वेदना और करुणा की विवृति, मानवतावाद,  नारी के प्रति नवीन दृष्टिकोण, आदर्शवाद, स्वच्छन्दतावाद, राष्ट्रीयता और देशप्रेम. प्रतीकात्मकता, चित्रात्मकता, बिम्ब विधान, विशेषण विपर्यय आदि भी प्रसाद के काव्य में मिलते है, जिनके कारण यह प्रांजल रूप से कहा जा सकता है कि प्रसाद न केवल छायावाद के प्रवर्त्तक कवि  है अपितु वे इस विधा में अप्रतिम भी हैं I इन मान दण्डो पर प्रसाद के काव्य का अनुशीलन करे तो अकेले ‘कामायनी’ ही सभी लक्षणों पर भारी है I रहस्यवाद की जैसी निष्पत्ति इस काव्य में हुयी है वह पन्त के ‘मौन निमंत्रण’ से कही आगे है I सम्पूर्ण सृष्टि किसके संकेतों पर चल रही है I ग्रह और नक्षत्र किसका संधान कर रहे हैं  I  वह कौन है जिसकी सत्ता सबने स्वीकारी है i ‘कामायनी’ में कथा नायक मनु के समक्ष ऐसे अनेक प्रश्न है I यह रहस्यानुभूति उन्हें विचलित भी करती है  I यथा - 

      महानील इस परम व्योम में, अन्तरिक्ष  में ज्योतिर्मान  

      गृह नक्षत्र और  विद्युत्कण  किसका  करते थे संधान

छिप जाते है  और  निकलते  आकर्षण में  खींचे हुए

तृण वीरुध  लहलहे  हो रहे  किसके रस से सिंचे हुए

सर नीचा कर किसकी सत्ता  सब करते  स्वीकार यहाँ

सदा मौन हो प्रवचन करते जिसका वह अस्तित्व कहाँ?

    ‘कामायनी’ के बारे में तो सभी जानते है के यह शैव संप्रदाय के प्रख्यात प्रत्यभिज्ञा दर्शन पर आधारित काव्य है I अतः तत्व चिंतन तो इसका मूल विषय ही है i आत्मा. माया, पुरुष, प्रकृति , जगत, नियति के साथ ही और अनेक दार्शनिक चिंतन इस काव्य में प्रचुरता से मिलते हैं i शिव-तत्व को  प्रसाद ने ‘चिति’ अथवा ‘महाचिति’ के रूप में दर्शाया है I इस प्रकार त्तात्विक विवेचन जो छायावाद के एक अंग माना गया है, उसमे भी प्रसाद अग्रगण्य है , क्योंकि कामायनी जैसा दार्शनिक चिंतन पूरे हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है I शिव-तत्व को कामायनी में इस प्रकार दर्शाया गया है-

1-       कर रही लीलामय आनंद महाचिति  सजग हुई.सी व्यक्त ।

         विश्व का उन्मीलन  अभिराम इसी में सब होते अनुरक्त ।

 

2-        अपने दुख सुख  से पुलकित  यह मूर्त-विश्व सचराचर

          चिति का विराट-वपु मंगल यह सत्य सतत चित सुंदर।

       छायावाद के अंतर्गत करुण और वेदना की विवृति पर विचार करे तो प्रसाद के प्रत्येक काव्य में पीड़ा का बड़ा ही मर्मान्तक समाहार हुआ है I  ‘आंसू’ काव्य तो संभवतः इसका अन्यतम उदाहरण है ही जो हिन्दी साहित्य जगत में मानव के अंतर की  घनीभूत पीड़ा का पर्याय माना जाता है I  एक उदाहरण देखिये –

       रो रोकर सिसक कर कहता मैं करुण कहानी

       तुम सुमन नोचते सुनते करते जानी अनजानी

      

      प्रसाद की ‘कामायनी’ आधुनिक लालसाओं और कामनाओं कसे उत्पन्न विकृति की सच्ची आलोचना है i भौतिक विकास संसार को समप्ति की और ले जा रहा है I यह समाप्ति किसी भी रूप में हो सकती है- जल-प्रलय के रूप में  I कामायनी का तो प्रारम्भ ही भौतिकतावाद की परिणामी सृष्टि विनाश की परवर्ती स्थितियों से होता है I कामायनी में मनु से मानव की उत्पत्ति दिखाकर प्रकृति ने मानो  मानवतावाद को ही जन्मदिया है जो मनुष्य और प्रकृति के रागात्मक सम्बन्धो एवं अनुभूतियों से अधिकाधिक पुष्ट हुआ है I

मधुमय  बसंत से  जीवन  के  बह  अंतरिक्ष  की  लहरों में

कब आये  थे  तुम  चुपके  से  रजनी  के  पिछले पहरों में

क्या  तुम्हें  देखकर  आते  यों  मतवाली  कोयल  बोली थी

उस  नीरवता  में  अलसाई  कलियों  ने  आँखे  खोली  थीं

जब लीला  से तुम  सीख  रहे कोरक  कोने  में  लुक करना।

तब शिथिल सुरभि से धरणी में बिछलन न हुई थी सच कहना 

       नारी के प्रति प्रसाद के हृदय में सदैव एक दैवीय सम्मान रहा  I यद्यपि व्यक्तिगत जीवन में जैसा उनके बारे में कहा जाता है उन्हें प्रेम में पराजय ही मिली और ‘आंसूं’ काव्य उसी पराजय की अभूतपूर्व दास्तान है, पर इससे नारी के प्रति उनकी सम्मानजनक भावनाओं में कोई कमी नहीं आयी I प्रसाद ने ‘बीती विभावरी जाग री’ में’ प्रकृति को नारी रूप में देखा और ‘कामायनी’ में तो मानव प्रवृत्त्यों के रूप में उनके पास मानवीकरण के लिए चिंता, आशा, श्रृद्धा , वासना, लज्जा, ईर्ष्या, इड़ा जैसे अनेक पात्र थे I पर ‘लज्जा’ सर्ग में प्रसाद ने नारी को जो अभिदान दिया वह हिन्दी साहित्य में अन्यतम है I इसको कवि का आदर्शवाद भी कहा जा सकता है, जो छायावाद का एक अनिवार्य तत्व भी है I  निदर्शन निम्न प्रकार है –

"क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प-अश्रु  जल से अपने
तुम दान कर चुकी पहले ही   जीवन के  सोने-से सपने I
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में
,
पीयूष-स्रोत सी  बहा  करो  जीवन  के सुंदर समतल में।

     साहित्येतिहास के आधार पर यह सर्वमान्य है कि अंगरेजी के स्वछन्दतावाद से छायावाद हिन्दी में आया i इसका यह अर्थ भी है की छायावाद स्वछंदतावाद से कही आगे है और छायावाद में स्वछंदतावाद कही घुल-मिल गया है I इसलिए छायावाद को समझने के लिए पहले स्वछंदतावाद को समझना आवश्यक है  I दरअसल इंग्लॅण्ड में कविता के अंतर्गत रोमांटिक स्वछंदतावाद औद्योगिक क्रांति की प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ i इसके साथ ही यह सामाजिक और राजनैतिक अभिजातीयकरण के खिलाफ भी एक विद्रोह था I वैज्ञानिक उत्कर्षों की शुष्कता से लोग उकताए और घबराए थे I ऐसे समय में अंग्रेजों ने साहित्य, संगीत और कलाओं में सुकुमार रूमानी कल्पनाओं को स्थान दिया  I यह स्वछन्दतावाद छायावाद का अनिवार्य अंग है  I ‘कामायनी’  के बारे में में भी यही बात लागू होती है , क्योंकि इसका प्रारम्भ ही एक भौतिकतावादी सभ्यता के विनाश के अधिकरण पर टिका हुआ है I प्रसाद का रोमांटिक स्वच्छ्न्दतावाद उपमा, रूपक, प्रतीक  और बिम्ब योजना से अलंकृत है  I यथा-

परिरम्भ कुम्भ की मदिरा  निश्वास मलय के झोंके
मुख चन्द्र चाँदनी जल से  मैं उठता था  मुँह धोके ।
थक जाती थी सुख रजनी मुख चन्द्र हृदय में होता
श्रम सीकर सदृश्य नखत से अम्बर पट भीगा होता ।
मादक थी  मोहमयी  थी  मन  बहलाने  की क्रीड़ा        
अब हृदय हिला देती है वह मधुर मिलन  की पीड़ा ।
 

      राष्ट्रीयता और देश-प्रेम तो प्रसाद के काव्य में ही नहीं उनके नाटकों में भी उभर कर सामने आया है । ‘स्कंदगुप्त’  नाटक का प्रसिद्ध गीत 'हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार'  आत्म-गौरव का ओजस्वी उद्बोधन है । प्रसाद की दृष्टि में भारत की संस्कृति चाहे वह अशोक की करुणा से आप्यायित हो या बुद्ध की अहिंसा से  उसने किसी न किसी रूप में पूरे विश्व को प्रभावित अवश्य  किया है I जन-जागरण में भी प्रसाद कहीं पीछे नही हैं I आर्य-संतान होने का अभिमान उन्हें भी है  I मातृगुप्त के शब्दों में उनका यह आत्म गौरव ही मुखर होता है -

      वही है रक्त,  वही  है  देह,  वही  साहस है,  वैसा ज्ञान
      वही है शांति, वही है शक्ति,  वही हम दिव्य आर्य संतान ।

मैथिलीशरण गुप्त ने पराधीनता की विदाई और स्वराज्य के आने का संकेत ‘साकेत’ में दिया था – ‘सूर्य का यद्यपि नहीं आना हुआ I किन्तु समझो रात का जाना हुआ II’ ‘ इसी प्रकार का सांकेतिक उद्बोधन प्रसाद ने ‘लहर’ काव्य की कालजयी कविता   ‘बीती विभावरी जाग री’ में किया  I राष्ट्रीयता , देश प्रेम और जागरण के अनेक गीत  प्रसाद के नाटकों और  ‘लहर’ जैसे काव्य में विद्यमान है , चाहे वह 'अब जागो जीवन के प्रभात' कविता हो या  'अपलक जगती रहो एक रात', हो या फिर  'शेरसिंह का शस्त्र-समर्पण' I प्रसाद ने राष्ट्रीय भावों के साथ वैयाक्तिक प्रेम को जिस आदर्श के साथ जोड़ा है वह उनकी अपनी निपुणता है I

       प्रतीकात्मकता, चित्रात्मकता और बिम्ब विधान तो प्रसाद की कविता के आसान उपादान है  I  इनकी योजना में कवि को लगना नही पड़ता I काव्य-प्रवाह के साथ वे स्वयं आते है और अपने अनूठेपन से प्रमाता को विस्मित कर जाते हैं I  ‘कामायनी’ में प्रत्यभिज्ञा दर्शन की योजना होने से उसमे दार्शनिक शब्द प्रतीक भी  आये हैं I जैसे – गोलक-अणु (ज्योतिर्पिंड), भूमा (परम शक्ति ), चिति (शिव तत्व ) आदि I स्वछंदतावादी प्रतीकों में प्रसाद  ने अरुण-किरण (प्रसन्नता), आकाश (हृदय), ऊषा (आनंद),कमल ,कलिका, मुकुल (कोमल भावनायें या नव प्रेमिका), बसंत (यौवन), कोकिल (आशा), जलधर( मधुर कामना)  और शशि-लेखा (कीर्ति ) आदि का उपयोग किया है I इसी प्रकार  जिन परम्परावादी प्रतीको का अधिकाधिक उपयोग कवि ने किया है वे इस प्रकार हैं – नाव (जीवन ), रात्रि (अन्धकार), भ्रमर (अभिलाषा), दीप शिखा (प्राण ज्योति), कुटिया (जीवन), पथिक (साधक ), प्रेमी (भटका हुआ), सागर (परमात्मा या संसार ) आदि I प्रसाद की चित्रात्मकता को दर्शाने के लिए ‘कामायनी’ में श्रद्धा के सौंदर्य –वर्णन का यह दृश्य ही यथेष्ट है -
         नील परिधान  बीच सुकुमार  खुल रहा  मृदुल अधखुला अंग,

         खिला हो ज्यों  बिजली  का फूल  मेघवन  बीच गुलाबी रंग ।

         आह वह मुख पश्विम के व्योम बीच जब घिरते हों घनश्याम,

         अरूण रवि-मंडल  उनको  भेद  दिखाई  देता  हो  छविधाम ।

         प्रसाद की बिम्ब योजना उनकी सभी रचनाओं में मुखर है  i किन्तु ‘लहर’ में ‘पेशोला’ की प्रतिध्वनि ‘ का बिम्ब बहुत ही प्रभावपूर्ण है I इस कविता में निर्धूम भस्मरहित ज्वलन पिंड के अरुण-करुण बिंब का जो चित्रण किया गया  है, वह  प्रतीकात्मक तो है ही कवि ने इसमें अस्ताचलगामी सूर्य के ब्याज से भारतीय अस्तोन्मुख गौरव-गाथा का प्रतिबिंब उकेरना चाहा है । परोक्ष रूप से इस कविता में भारतीयों को प्रेरित किया गया है, जगाया गया है, उन्हें  जागरण का संदेश दिया गया है I यहाँ कवि की ललकार चुनौती से भरी हुंकार के रूप में प्रतिफलित हुयी है I

कौन लेगा भार यह ?
कौन विचलेगा नहीं ?
दुर्बलता इस अस्थिमांस की -
ठोंक कर लोहे से, परख कर वज्र से,
प्रलयोल्का खंड के निकष पर कस कर
चूर्ण अस्थि पुंज सा हँसेगा अट्टहास कौन ?
साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर होके
धूलि सी उड़ेगी किस दृप्त फूत्कार से

       छायावाद का एक और आवश्यक अंग  विशेषण-विपर्यय (Transferred epithet ) अंगरेजी साहित्य से हिंदी में आया, ऐसी मान्यता है I  इस अलंकार में किसी उपनाम (यहाँ पर विशेषण)  को उसके उचित विशेष्य से अंतरित कर दूसरे शब्द से जोड़ दिया जाता  है जो वाक्य में उसके साथ   घनिष्ठ सम्बन्ध रखता हो I सामान्य शब्दों में कहें तो यह कि एक स्वाभाविक विशेषण को अस्वाभाविक विशेष्य में लगा देना I  जैसे – उसने नींद रहित रात गुजारी I यहाँ पर नींद रहित व्यक्ति है पर वाक्य से ऐसा लगता है मानो रात स्वयं निद्रा विहीन हो I  हिन्दी साहित्य के वेसभी कवि जिन्हें छावडी कहा जाता हां उन्होंने विशेषण-विपर्यय का बहुलता से प्रयोग किया है I इनमे जिन अप्रत्याशित विशेषण-विशेष्यो का प्रयोग हुआ है  उनमे से कुछ इस प्रकार है – स्वप्निल-मुस्कान, मृदु-आघात, मूक-कण, भग्न-दृश्य , नीरव-गान, तन्वंगी-गंगा, गीले-गान, मदिर-बाण, मुकुलित-नयन, सोई -वीणा इत्यादि I प्रसाद ने ‘आंसू’ काव्य का प्रारंभइस प्रकार किया है  –

               इस करुणा-कलित ह्रदय में अब विकल रागिनी बजती  I

                क्यो हाहाकार   स्वरों  से  वेदना   असीम  गरजती II

               उक्त पंक्तियों में रागिनी को विकल बताया गया है जो अस्वाभाविक है क्योंकि व्याकुल तो कवि का ह्रदय है  I  अतः यहाँ पर विशेषण में विपर्यय है I इस प्रकार हम पाते है की छायावाद की जितनी भी प्रवृत्तियां विद्वानों द्वारा बताई गयी है उनका पूर्ण समाहार प्रसाद के बहु-विध साहित्य में हुआ है i वे छायावाद को हिन्दी में लाये ही नहीं  उसके साथ लम्बे समय तक साहचर्य किया और उसे अन्यतम ऊंचाइयों तक उठाया I

                                                                          ई एस-1/436 , सीतापुर रोड योजना कालोनी

                               अलीगंज सेक्टर-ए, लखनऊ

  (मौलिक व् अप्रकाशित )    

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