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मर्दों के खोखले दंभ पर बेधड़क वार करती है ’वो अजीब लड़की’ // --सौरभ

वो अजीब लड़की ! ..
हाँ, वो लड़की अजीब ही है ।

हो भी क्यों न ? ’स्वघोषित’ मर्दों के संसार में जिन प्रहारक इंगितो और तिर्यक भंगिमाओं को अमूमन सभी लड़कियाँ एक उम्र के बाद खूब जानने और बखूबी ताड़ने लगती हैं, भले ही ऐसी जानकारियों से बनी समझ को अमूमन स्वयं तक ही रखती हों, भले ही ऐसी समझ को इस संसार में अपने आप को बचाये रखने की ’ढाल’ की तरह प्रयुक्त करती हों, उस समझ के मुताबिक स्वयं को बचाती हुई जीवन भर बरतती रहती हों, ’वो लड़की’ ऐसी कोई ’ढाल’ अपने आप को महज़ बचाये रखने के लिए इस्तमाल नहीं करती ! ऐसी किसी समझ को, इन सब के उलट, वह एक सटीक ’हथियार’ बना कर ’मर्दों’ के दंभ पर बेधड़क वार करती है । वार, जो जानलेवा तो नहीं होता, लेकिन मर्दों के अहंकार को बहुत ही बेदर्दी से तहस-नहस करता हुआ दिखता है ।

उस लड़की के ऐसे बर्ताव से खुद उसका कुछ बनता-बिगड़ता नहीं । कि, कौन उसे मुँहफट, कौन उसे बदतमीज़ कहता है ! या, कौन उसे क्या नाम देता है ! बल्कि, वो मिथ्याचारियों की आँखों में आँखें डाल कर न केवल उन्हें नंगा करती है, ऐसा करते हुए वो हर बार उनको उनकी नंगई का खूब अहसास कराती है । नंगई, जो तमाम कपड़ों के बावज़ूद सरे आम दीखती है !

कहते भी हैं न,

कर्मेन्द्रियाणी संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान विमूढ़ात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ (गीता. 3-6)

कर्मेन्द्रियों की बेहयाई को बलात दबा कर मन ही मन इन्द्रियों की स्वच्छन्द इच्छाओं को सतत गुनने-विचारने वाले विमूढ़ वस्तुतः मिथ्याचारी होते हैं ।

वैचारिक स्थूलता का मनोविज्ञान वर्जनाओं के उन्मुक्त व्यवहार की व्याख्या ही तो है । ऐसी व्याख्याएँ जिनका संभाव्य अदम्य अतृप्ति होती है । जो अकसर सांकेतिकता की लक्ष्मणरेखा के पार चली जाती है ! जिसका हश्र हर बार नैतिकता की सीता के हरण के रूप में होता है । मर्दों के निरंकुश संसार में बर्ताव का जो ढंग है, वह कई बार उन्मुक्त प्रतीत होने के बावज़ूद कई मायनों में बलात उधड़ी हुई गोपनीयता बरतता है । मर्दों के समाज का ऐसा कोई गोपन-व्यवहार वर्जित शब्दावलियों के ऐच्छिक प्रयोग से ही संभव है ।

वो लड़की मर्दों के इस समाज में पूरी तैयारी और धमक के साथ अतिक्रमण करती है । उसका यही अतिक्रमण उसे अजीब बनाता है ! कि, वह ऐसा करती कैसे है ! चूँकि देह को पवित्रता के लिए समर्पित मन्दिर मानना उसके मत का निहितार्थ नहीं है । लेकिन यह भी सही है, कि दैहिक उन्मुक्तता के कारण सहज संभव लैंगिक संयोग उसके लिए साध्य भी नहीं है । बल्कि ऐसा कुछ होना, हो जाना उसके लिए दैनिक-चर्या की अनायास-सी प्रक्रिया मात्र है । ऐसी प्रक्रिया जो किसी तौर पर वृत्तियों के अनावश्यक घूर्णन का कारण नहीं होती । जैसा कि, आम तौर पर लड़कियों के साथ होना माना जाता है, भले ही वो समस्त वर्जनाओं को धता बताती हुई जीवन को भोगने की हामी हो । मगर उस लड़की के लिए ऐसा कुछ नहीं है !
इस कारण वो लड़की अजीब है !

प्रियंका ओम जी की ’वो अजीब लड़की’ प्रेषणीयता के क्रम में उन मूर्तियों का शाब्दिक निरुपण हैं जो तमाम दैहिक क्रियाओं की भंगिमाओं को प्रस्तुत करने के बावज़ूद स्वयं निर्लिप्तता के अत्युच्च अवस्था को जीती हुई अभिव्यक्त हुई हैं ।

देह की बात करती हुई कहानियाँ देह के पार सोचने को प्रेरित ही नहीं करतीं, इस हेतु उद्वेलित भी करती हैं ।

लेकिन यह भी अवश्य है, कि, आगे चल कर, किस्साग़ोई के क्रम में लेखिका को वह विन्दु अवश्य-अवश्य तय करना होगा, जिसके आगे देह अपने समस्त वज़ूद के बावज़ूद चर्चा का कारण नहीं रह जाता !

प्रियंका ओम जी को उनकी बेलाग लेखिनी और इलाहाबाद के प्रकाशक अंजुमन प्रकाशन को इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ ..
***********************************
--सौरभ पाण्डेय
(एक पाठकीय समीक्षा)

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