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साथियों! "भारतीय छंद विधान" समूह में आप सभी का हार्दिक स्वागत है| इस पर आयोजित प्रथम चर्चा के अंतर्गत आज हम सब यहाँ पर "दोहा" छंद पर चर्चा करते हुए इससे सम्बंधित जानकारी एक दूसरे से साझा करेंगें!

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े. काको लागूं पायं।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

 

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय|
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ||

  • कबीर दास

 

"दोहा" से तो हममें से अधिकांश मित्रगण पूर्व परिचित ही हैं | इसका इतिहास बहुत पुराना है, प्रसिद्द संत कबीर, रहीम, तुलसी से लेकर गोपालदास 'नीरज' तक ने एक से बढ़कर एक दोहे रचे हैं | परिणामतः दोहे हमारे जीवन में रच -बस गये हैं आज भी शायद ही कोई प्रसिद्द कवि होगा जिसने दोहे न कहें हों! दोहों नें जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाये रखा है| यहाँ तक क़ि दोहे नें दिलों को जोड़ने का ही कार्य किया है, आलम और शेख़ के किस्से से तो आप सभी परिचित ही होंगें......

कहा जाता है क़ि रीतिकाल में हुए कवि आलम एक सनाढ्य ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे अपनी प्रतिभा व चतुराई के बल पर ये सम्राट औरंगजेब के राज कवि बन गये औरंगजेब का लड़का शाह मुअज्जम इनका परम मित्र था| एक बार राज दरबार से इन्हें पहेली के रूप में एक समस्या दी गयी जो क़ि एक दोहे की प्रथम पंक्ति थी......."कनक छरी सी कामिनी काहे को कटि छीन.", जब बहुत सोंच विचार करके भी आलम इस दोहे की दूसरी पंक्ति लिखने में असमर्थ रहे तब उन्होंने इसे एक कागज पर लिखकर अपनी पगड़ी में रख लिया. संयोग से वह पगड़ी धुलने के लिए शेख़ नाम की एक मुसलमान रंगरेजिन के पास चली गयी कहा जाता है क़ि शेख़ निहायत ही खूबसूरत व चतुर युवती थी उस पर से वह शेरो-सुखन का शौक भी रखती थी| शेख़ ने जब धुलने के लिए वह पगड़ी खोली तो उसमें से कागज का वह टुकड़ा मिला जिस पर अधूरा दोहा लिख हुआ था, शेख़ ने उसे ध्यान से पढ़ा व तत्काल ही उसे पूरा करके पगड़ी धुल डाली व दोहे को उसमें यथावत रख दिया|

 

शेख़ नें इसे कुछ यूं पूरा किया था 'कटि कौ कंचन काटि कै कुचन मध्य भरि दीन..' उधर आलम को जब पता चला क़ि पगड़ी धुलने चली गयी है तो वह यह सोंचकर बहुत दुखी हुए क़ि दोहा तो गया .....पर जैसे ही पगड़ी धुलकर आई व उसमें उसी कागज पर पूरा किया हुआ दोहा मिला तो आलम की खुशी का पारावार ना रहा........अपनी भाभी की सहायता से आलम रंगरेजिन के घर जा पहुँचे बस यहीं से शुरू हो गया दोनों में प्रेम। बढ़ते-बढ़ते दोनों का प्यार उस मुकाम पर जा पहुंचा, जहाँ पर उन्हें लगा  कि दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते। लेकिन वहाँ भी दोनों के धर्म आड़े आने लगे। कवि आलम तो अपना धर्म छोड़ने को तैयार हो गए, पर प्रेमिका शेख़ ने कहा, धर्म बदलने की जरूरत नहीं, तुम अपने धर्म का पालन करना और मैं अपने। दोनों ने विवाह कर लिया। दो दिलों लो जोड़ने वाला यह दोहा कुछ यूं बना .......

 

कनक छरी सी कामिनी काहे को कटि छीन.

कटि कौ कंचन काटि कै कुचन मध्य भरि दीन..  --आलम शेख़

 

'शेख आलम' के नाम से प्रसिद्ध दोनों की रचनाएं हिंदी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। कहा जाता है क़ि सच्चा प्रेम धर्म परिवर्तन को बाध्य नहीं करता, बल्कि अलग-अलग आस्थाओं के बावजूद साथ मिलकर जीने की सीख देता है। 

दोहे का रचना विधान :

 

दोहा चार चरणों से युक्त एक अर्धसम मात्रिक छंद है जिसके  पहले व तीसरे चरण में १३, १३ मात्राएँ तथा दूसरे व चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं, दोहे के सम चरणों का अंत 'पताका' अर्थात गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों के आदि में जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है ! अर्थात दोहे के विषम चरणों के अंत में सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती  है!   सम चरणों के अंत में जगण अथवा तगण आना चाहिए अर्थात अंत में पताका (गुरु लघु) अनिवार्य है|

दोहे की रचना करते समय पहले इसे गाकर लिख लेना चाहिए तत्पश्चात इसकी मात्राएँ जांचनी चाहिए ! इसमें गेयता का होना अनिवार्य है ! दोहे के तेइस प्रकार होते हैं | उन पर चर्चा आगे की जायेगी !

 

लघु-गुरु में यह है बँधा, तेइस अंग-प्रकार.

चार चरण इसमें सजें, लघु इसका आकार..

 

तेरह मात्रा से खिले, पहला एवं तृतीय.

मात्रा ग्यारह मांगता, चरण चतुर्थ द्वितीय..  

 

विषम, आदि वर्जित जगण, करता सबसे प्रीति.

अंत पताका सम चरण, दोहे की ये रीति..  

 

लघु से तात्पर्य छोटी ध्वनि वाले वर्ण तथा गुरु से तात्पर्य दीर्घ (लम्बी) ध्वनि के संयुक्त वर्ण से है !

उदाहरण के लिए .....

१११    १११   २११   १११,    २११    २१  १२१

नवल धवल शीतल सुखद, मात्रिक छंद अनूप.

२२११   २२   १२११११  २१  १२१

सर्वोपरि दोहा लगे,  अनुपम रूप-स्वरुप.. --अम्बरीष श्रीवास्तव

 

इस दोहे में २५ लघु व ११ गुरु हैं अतः दोहों के प्रकार के हिसाब से यह " चल या बल" नामक दोहा हुआ |

 

चल/बल दोहे के कुछ और भी उदाहरण देखिये---

 

११२     ११२      १११  ,    ११११   २११    २१

महुआ महका, पवन में सुरभित मंजुल राग.

१२     १२ ११   २१     ११    ११२१     १२१
सदा सुहागन वन्य श्री, वर ऋतुराज सुहाग.. -- संजीव 'सलिल'

 

११११     ११    २   २१११ ,     १२   १११  ११   २१ 

जनगण-मन को मुग्धकर, करे ह्रदय पर राज्य. 

११   ११       ११   १११   ,    २२       २२१
नव रस का यश कलश है, दोहों का साम्राज्य.. -- संजीव 'सलिल' 


११२१            १११,    ११   ११       २२१
परिवर्तन तो है नियम, उस पर क्या आवेश.

११       ११२       १११,    १११  १२    ११२१
जब भी बदला है समय, बदल गया परिवेश.. --चंद्रसेन 'विराट'


२११    ११२२      १११,   २११    १११     १२१
दीरघ अनियारे सुगढ़, सुन्दर विमल सुलाज.

१११    १२     २११  १२     २१   १२१    १२१
मकर छबी, बाढह मनो, मैन सुरूप जहाज..  --सूरदास मदन मोहन

______________________________________________________

 

दोहा सच का मीत है, दोहा गुण की खान.

दोहे की महिमा अगम, दोहा ब्रह्म समान ..

--अम्बरीष श्रीवास्तव

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Replies to This Discussion

चर्चा करें समूह में , साझा दोहा ज्ञान.
अपनेपन से आपका, स्वागत है श्रीमान..

यहाँ पर कमेण्ट करने के लिए कृपया सबसे पहले इस ग्रुप को  ज्वाइन कर लें !

इस ग्रुप को प्रारम्भ करने के लिये आपका बहुत-बहुत आभार, आदरणीय अम्बरीष भाईजी.  उचित जानकारी तथा तथ्यपरक चर्चा करके आपने दोहों की जानकारी को और रोचक बना दिया है.

शेख आलम की चर्चा कई मायनों में इस बात की गवाही है कि उस समय की बेटियाँ मानसिक और वैचारिक रूप से बेटों से किसी बात में कम नहीं थीं जबकि मुग़ल काल होने के कारण सामाजिकतः कई बन्धन हुआ करते थे.

ऐसा ही कुछ ’बरवै’ छंद के साथ भी हुआ कहते हैं. रहीम खानखाना को उनके सिपाही की पत्नी की एक रुक्के पर लिखी दो पंक्तियाँ मिली थीं जो उस सिपाही के अवकाश पर जाने का कारण के रूप में प्रस्तुत हुई थीं. वो दो पंक्तियाँ ’बरवै’ छंद के प्रारम्भ का कारण बन गयीं. जिसपर आगे चल कर रहीम ने भरपूर काम किया था.

 

ध्यातव्य : आपतो दोहा छंद के गूढ़ जानकार हैं.  कनक छरी सी कामिनी काहे को छीन.  के विषम में दो मात्राएँ कम हैं. वहाँ कटि शब्द छूट गया है. पूरी पंक्ति इस प्रकार है - 

कनक छरी सी कामिनी काहे को कटि छीन ।

कटि को कंचन काटि के कुचन मध्य भरि दीन ॥

कहीं-कहीं काटि के को काटि विधि भी उद्धृत किया गया जाता है.

 

सुझाव : अभीतक इस मंच के माध्यम से छंदों पर बहुत बातें हुई हैं. विशेषकर, महाउत्सव के छंद-आयोजन की चर्चा करना चाहूँगा. वहाँ के सुझावों, वहाँ कही गई सलाहों को भी यहाँ शामिल किया जाय. तथा आयोजन में उद्धृत निर्दोष छंदों का उद्धरण दिया जाय. इससे अपना प्रयास और श्रेष्ठ होगा. सुधी जनों के विचारों का सादर स्वागत है. 

सधन्यवाद. ..

धन्यवाद आदरणीय भाई सौरभ जी ! आपके सुझाव अति उत्तम है !  बरवै छंद के बारे में रोचक जानकारी उपलब्ध करने के लिए आपका आभार !इस बारे में  चर्चा आगे की जायेगी !

वांछित संशोधन कर दिया गया है !

आदरणीय अम्बरीश जी, सौरभ साहब,  
दोहा : परिचय एवं विधान - पर चर्चा निश्चित ही लाभकरी होगी मुझे याद है स्कूल मैं दोहा, सोरठा, छंद आदि व्याकरण में पढाये गए थे उसके बाद कभी ना मुड के देखा ना सुना किसी के मुंह से, और ना मैंने भी लिखने की कोशिश की,    
दोहा परिचय और विधान शुरू करने के लिये शुभ कामनाएं - सुरिदर रत्ती - मुंबई

भाई सुरिन्दर साहब, आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिये हृदय से आभारी हूँ.  आदरणीय अम्बरीषजी छंदों के लिहाज से पुरोधा हैं. उनकी समझ और जानकारी हम सब के लिये मार्गदर्शी हैं.

क्या ही अच्छा हो आप इस वर्ष के अगस्त माह में आयोजित महा-उत्सव (अंक - 10/ छंद विशेषांक) की कुल परिचर्चा पढ़ जायें. यह मेरा सादर सुझाव है.  लिंक (सूत्र) निम्नलिखित है -

http://www.openbooksonline.com/forum/topics/mahautsav10

आदरणीय भाई सुरिंदर रत्ती जी ! सत्य कहा आपने ! इस चर्चा को पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार मित्र ! इस चर्चा को रोचक बनाने के लिए हम अपनी बात दोहे में भी कह सकते हैं !
जैसे :
२१     १२   ११  २१२,  २२२     २२१
सत्य कहा प्रभु आपने, स्वीकारें आभार.
२२   २   २२   १२, २२  २  ११२१
दोहों में चर्चा करें , ऐसा हो व्यवहार..

उपरोक्त दोहे में  में कुल दस लघु व उन्नीस गुरु हैं अतः इसे 'श्येन' प्रकार का दोहा कहेंगें!

बात आपकी मान के, कर दोहे में बात,

जान ही अब जायेंगे, बना रहे बस साथ,

२१  २१   २२  १२,  २२   २ २   २१
वाह वाह भाई मेरे, दोहे में की बात.
११   २२  २२१  २,   २   ११ २२   २१
यह दोहा ईनाम में, लो अब मेरे भ्रात..


इसमें भी  १९ उन्नीस गुरु, १० दस लघु होने से यह  "श्येन" प्रकार का  दोहा ही हुआ
उपरोक्त दोहे में ध्यान देने की बात यह है कि इसके प्रथम चरण में "मेरे" में उच्चारण के आधार पर १२ अर्थात लघु-गुरु मात्रा ली गयी है तथा चतुर्थ चरण में पुनः "मेरे" शब्द में अलग तरीके से उच्चारण के आधार पर २२ अर्थात गुरु-गुरु गिना गया है !

 

आदरणीय भाई बागी जी ! आपका मूल दोहा यह रहा ......

बात आपकी मान के, कर दोहे में बात,

जान ही अब जायेंगे, बना रहे बस साथ,

इसे हम यूं भी लिख सकते हैं ....

२१   २१२    २१  २,   ११   २२  २  २१

बात आपकी मान के, कर  दोहे में बात.

२१   २१२    ११   १२,   १२  १२  ११  २१ 

जान जायेंगे अब सभी,  बना रहे बस साथ..

इसमें १६ सोलह लघु १६ गुरु होने से इसे "करभ प्रकार का दोहा कहा जायेगा !

या फिर इसे ऐसे भी कह सकते हैं ......

'जायेंगे अब जान ही, बना रहे बस साथ,'

२२    १२   १२१  २,    २२   २२   २१
चर्चा करें समूह में , साझा दोहा ज्ञान.
११२११    २   २१२,    २११    २   २२१
अपनेपन से आपका, स्वागत है श्रीमान..


उपरोक्त दोहे में १८ अठारह गुरु १२ बारह लघु हैं अतः यह इसे मंडूक" प्रकार का दोहा कहा जाएगा !

प्रथम आज प्रवेश हुआ, मिला आपका साथ।
लो यह दोहा बन गया, बातों ही में बात।।

२२     ११२   २   १२ ,   १२    १२११  २१ 

दोहा कहते आ मिले, बने उमेश्वर मीत.

२२     २२     २  १२,  २   ११२   ११     २१

बातों-बातों में रहे , हैं सबका  दिल जीत..

उपरोक्त  दोहे में १७  गुरु व १४ लघु हैं ! अतः इसे मरकट नामक दोहा कहा जाएगा  .....

    १११   २१   १२१   १२    १२     २१२     २१

अब कृपया आप अपना रचा हुआ दोहा एक  नज़र देखें ....

//प्रथम आज प्रवेश हुआ, मिला आपका साथ।

२   ११   २२    ११   १२,    २२    २  २  २१
लो यह दोहा बन गया, बातों ही में बात।।//

इसमें प्रवेश शब्द 'जगण' अर्थात जभान या १२१  है जिसका प्रयोग  दोहे के विषम चरणों में निषिद्ध है क्योंकि यह गेयता को बाधित करता है ....साथ ही साथ सम चरणों  के अंत की पताका (गुरु लघु ) के अंतिम अक्षर का मेल मात्र ध्वनिक ही है यद्यपि कुछेक विद्वान इसे स्वीकार भी लेते हैं .......फिर भी आप यदि चाहें तो अपने दोहे को कुछ इस तरह से भी रच सकते हैं .....

१११   १११    २२     १२,    १२     २१२     २१

प्रथम दिवस आया यहाँ, मिला आपका साथ.

२    ११   २२   ११  १२     १२    १२२    २१

लो यह दोहा बन गया, खिला हमारा माथ..


इस में अट्ठारह लघुपन्द्रह गुरु होने के कारण इस दोहे को 'नर' दोहा का जाएगा|

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