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कलम ....

कहाँ
चल सकती है
बिना बैसाखी के
कागज़ पर
कलम

पडी रहती है
निर्जीव सी
किसी के इंतज़ार में
कलमदान में
कलम

लेकिन
ये न हो तो
आसमान की ऊंचाईयों को
ज़मीन नहीं मिलती
शब्दों को पंख नहीं मिलते
सोच को साकार का माध्यम नहीं मिलता
भाव अन-अंकुरित ही रह जाते हैं
यथार्थ में देखा जाए तो
कलम को बैसाखी की नहीं
अपितु
भाव

बिना कलम की बैसाखी के
मृत समान होते हैं

ये न होती तो
इतिहास न बनता
कवि का मधुमास न बनता
प्रेमाभिव्यक्ति निरुत्तर रहती
निर्दोष को न्याय न मिलता
समाज में संवाद न होता
सच
किसी को महान बनाती है
शब्दों को ज़ुबान बनाती है
बड़े -बड़े ग्रन्थ
सब तेरी बदौलत हैं
रामायण,महाभारत,गीता,
कुरआन, बाईबिल
सबके सृजन का
आधार तू है
तू जननी है
हर शब्द के प्राण की
माँ शारदे का तू रूप है
तू अज्ञानता में
ज्ञानता की धूप है

हे! युगों की निर्मात्री
कलम
तुझे दंडवत प्रणाम

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on January 8, 2019 at 2:57pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Mahendra Kumar on January 7, 2019 at 8:32pm

//कलम को बैसाखी की नहीं 
अपितु 
भाव

बिना कलम की बैसाखी के 
मृत समान होते हैं//           ...बहुत ख़ूब!

"कलम" पर बढ़िया कलम चलायी आपने आदरणीय सुशील सरना जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

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