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तरही ग़ज़ल : ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया

212 212 212 212

...

दरमियाँ अब तेरे मेरे क्या रह गया,

फासला तो हुआ पर नशा रह गया ।

उठ चुका तू मुहब्बत में इतना मगर

मैं गिरा इक दफ़ा तो गिरा रह गया ।

ज़ह्र मैं पी गया, बात ये, थी नहीं,

दर्द ये, मौत से क्यों ज़ुदा रह गया ।

मौत से, कह दो अब, झुक न पाऊँगा मैं,

सर झुकाने को बस इक खुदा रह गया ।

टूट कर फिर से बिखरुं, ये हिम्मत न थी,

इस जहाँ को बताता, गिला रह गया ।

खत जो तेरा पढ़ा चश्म-ए-तर हो गए,

बा-वफ़ा था मैं अब बे-वफ़ा रह गया ।

ज़िन्दगी में चलीं आँधियाँ इस कदर,

ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया ।

-- --  ---

मौलिक व अप्रकाशित

हर्ष महाजन

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Comment by Harash Mahajan on March 5, 2018 at 11:47pm

...

दरमियाँ अब तेरे मेरे क्या रह गया,

फासला तो हुआ पर नशा रह गया ।

उठ चुका तू मुहब्बत में इतना मगर

मैं गिरा इक दफ़ा तो गिरा रह गया ।

ज़ह्र मैं पी गया, बात ये, थी नहीं,

दर्द ये, मौत से क्यों ज़ुदा रह गया ।

मौत से, कह दो अब, झुक न पाऊँगा मैं,

सर झुकाने को बस इक खुदा रह गया ।

टूट कर फिर से बिखरुं, ये हिम्मत न थी,

इस जहाँ को बताता, गिला रह गया ।

खत जो तेरा पढ़ा चश्म-ए-तर हो गए,

बा-वफ़ा था मैं अब बे-वफ़ा रह गया ।

ज़िन्दगी में चलीं आँधियाँ इस कदर,

ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया ।

Comment by Harash Mahajan on March 5, 2018 at 11:38pm

आदरणीय समर कबीर जी आदाब । आपके दिए प्रोत्साहन से ऊर्जा मिल जाती है सर । आपके आने भर से कुछ न कुछ सीखने को आवश्य मिलता है । आज एक और शब का इज़ाफ़ा हुआ । ज़ह्र का । 

मेरी बहुत सी ग़ज़लों में ये इस्तेमाल हुआ है सर । उन्हें दुरुस्त करने होगा । आपकी इस प्रोत्साहन भारी टिप्पणी के लिए दिल से मशकूर हूँ ।

सादर

Comment by Samar kabeer on March 5, 2018 at 10:28pm

जनाब हर्ष महाजन साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

'बात ये थी नहीं,पी गया में ज़हर'

इस में 'ज़हर' शब्द सही नहीं,सही शब्द है "ज़ह्र"21,इसलिये इस मिसरे को यूँ कर लें :-

'ज़ह्र मैं पी गया बात ये थी नहीं'

Comment by Harash Mahajan on March 5, 2018 at 1:11pm

आदरणीय तेज वीर सिंह जी आपकी इस कृति पर उपस्तिथि और उत्साहवर्धन के लिए मैं तहे दिल से आभारी हूँ । शुक्रिया सर ।

सादर!

Comment by TEJ VEER SINGH on March 5, 2018 at 12:13pm

हार्दिक बधाई आदरणीय हर्ष महाजन साहब जी।बेहतरीन गज़ल।

ज़िन्दगी में चलीं आँधियाँ इस कदर,

ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया ।

Comment by Harash Mahajan on March 4, 2018 at 1:00pm

क्षमा कीजियेगा आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी, ऑटो स्पेल में आपके नाम में त्रुटि हुई । 

सादर

Comment by Harash Mahajan on March 4, 2018 at 12:55pm

आदरणीय शरद सिंह  जी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया । उम्मीद है आपकी आमद यूँ ही बरकरार रहेगी ।

Comment by Harash Mahajan on March 4, 2018 at 12:53pm

आदरणीय श्याम नारातां वर्मा जी हौंसला अफ़ज़ाई का दिल से शुक्रिया ।

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on March 4, 2018 at 10:30am

आदरणीय महाजन जी एहसास व अनुभूति परक रचना हेतु बधाई सादर...

Comment by Shyam Narain Verma on March 4, 2018 at 10:21am
ही सुन्दर ग़ज़ल, हार्दिक बधाई l सादर

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