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सोये हो तो जागो - डॉo विजय शंकर

क्या कापुरुषत्व अब
सधे पौरुष का पर्याय बन गया है।
विवेक-शून्य होकर
हाँ में हाँ मिलाना ही
विवेक-शील होने का
एकमात्र प्रमाण बन गया है।

समय के साथ चलिए ,
हमारे साथ आगे बढ़िये ,
भले ही हमारा एहसास
सत्रहवीं शताब्दी का हो ।
समवेत-स्वर में गाइये,
सप्तम-स्वर में गाइये ,
स्तुति, वंदना , प्रशस्ति-गान ,
हमारे लिए , आज़ादी है ,
कहाँ मिलेगी ऐसी आज़ादी।
बाकी आवाज उठाना,
समझदार हैं आप ,
समय की बर्बादी है ,
अपनी ही बर्बादी है ॥

भटक गए हो
तो लौट लो , वहीँ
जहां से भटके थे ,
लोग इन्तजार करते मिलेंगे।
खो गए हो खुद तो
घर लौट लो ,
घरवाले प्रतीक्षा करते मिलेंगे।
उठो , खुद को पहचानो ,
सोये हो , तो जागो।।


मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on February 12, 2016 at 5:57am
मैं भी आपकी पारखी दृष्टि का बहुत कायल हूँ। रचना पर उपस्थिति एवं आपकी टिप्पणी हेतु आपका आभार एवं धन्यवाद , आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी , सादर।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 10, 2016 at 10:07pm

विजय सर ! आपके कथन वैचित्र्य का मैं हमेशा कायल रहा हूँ . बहुत खूब .

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 9, 2016 at 10:02am
प्रिय मिथिलेश वामनकर जी , आपकी बधाई और विशेष बधाई , दोनों के लिए , आपका ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 9, 2016 at 10:00am
आदरणीय सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी , आपका आभार एवं धन्यवाद , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 9, 2016 at 1:20am

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, गहन वैचारिक प्रस्तुतियां आपकी विशेषता बन गई है. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.

इन जबरदस्त पंक्तियों के लिए विशेष बधाई-

//भटक गए हो
तो लौट लो , वहीँ
जहां से भटके थे ,
लोग इन्तजार करते मिलेंगे।
खो गए हो खुद तो
घर लौट लो ,
घरवाले प्रतीक्षा करते मिलेंगे।
उठो , खुद को पहचानो ,
सोये हो , तो जागो।।//

Comment by pratibha pande on February 8, 2016 at 10:10pm

भटक गए हो
तो लौट लो , वहीँ
जहां से भटके थे ,
लोग इन्तजार करते मिलेंगे।
खो गए हो खुद तो
घर लौट लो ,///   सुन्दर प्रभावशाली रचना  हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय 

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