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ओ कनहइया
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घोर कलियुग आ गया 

बाप बड़ा न भइया 
सारे जग को नाच नचाये 
काला  सफ़ेद रुपइया 
वक्त कभी था जगह जगह 
ज्ञान की बातें होती 
लुटती अस्मत बीच सड़क 
ममता घर घर रोती 
कब बदलेगा ये चलन 
जब' भाई ' बनेंगे भइया
सारे जग को नाच नचाये 
काला  सफ़ेद रुपइया 
हरी भरी  धरती थी अपनी 
कल कल नदिया बहती 
भरपूर फसल दे उत्पादन 
जन जन पेट को भरती 
काटे वन काटे तन मन 
दिखे न अब गौरइया 
सारे जग को नाच नचाये 
काला  सफ़ेद रुपइया 
सुनते  थे  हम प्रभु जी 
पाप धरा पे बढ़ जाता 
किसी रूप में खुद चलकर 
तू धरती पे आता 
टूट चुके हम सब  मालिक 
रक्षा कर ओ कनहइया 
सारे जग को नाच नचाये 
काला  सफ़ेद रुपइया 
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 
21-3-2013 
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 286

Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 12, 2013 at 6:11pm

स्नेही पाठक जी 

सादर आभार 

Comment by ram shiromani pathak on March 22, 2013 at 2:33pm

 आदरणीय प्रदीप जी  जी बहोत ही सटीक  चित्रण किया है ....हार्दिक बधाई ..सादर

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