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हल्का-फुल्का,,,,हास्य रस

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झाँसी की रानी रहॊगी प्राण लॆकर ही मेरॆ,
मौनी बाँध बैठी हॊ बॊल न उचारती हॊ ॥
बनाय खाय सिगड़ी  बुझाय बिस्तर लगा,
औंधी  पड़ी  खाट पर तुम  डकारती हॊ ॥
सात फॆरॆ जॊ लॆ लियॆ तुम्हॆं धॊबी मिल गया,
कपड़ॆ दिन मॆं सात  जॊड़ी  उतारती हॊ ॥
बताती रहती हॊ धौंस माई बाप  की मुझॆ,
 चमचॆ सॆ बॆलन सॆ झाड़ू सॆ मारती हॊ ॥
=============================
सखी तरकीब तूनॆ नहीं है बताई मुझॆ,
प्रॆम-सौंदर्य कॊ कैसॆ तुम निखारती हॊ ॥
आतॆ हैं पिया पीकर झूमतॆ जब रात मॆं,
नैनन सॆ मिला नैन कैसॆ निहारती हॊ ॥
जानकर रहूँगी राज मैं मिज़ाज़ का तॆरॆ,
शराबी कॆ संग रात कैसॆ गुजारती हॊ ॥
मॆरॆ घर नज़र उतारती हूँ झाड़ू सॆ मैं,
बॆलन सॆ सखी तुम कैसॆ उतारती हॊ ॥
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Comment

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Comment by Savitri Rathore on March 15, 2013 at 6:13pm

बहुत खूब ! शब्दों का सटीक प्रयोग हास्य की उत्पत्ति में सहायक है।बधाई हो।

Comment by Yogi Saraswat on March 15, 2013 at 11:56am

बहुत सुन्दर !

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 14, 2013 at 10:56am

 आदरणीय  श्री राज बुन्देली जी,  ‘उनकी  नज़र  मैं उतारती हूँ  झाड़ू सॆएतुम बॆलन सॆ सखी कैसॆ यॆ  उतारती हॊ ॥‘ बेलन के स्थानपर ‘आदर‘ शब्द होता,  आश्चर्य  व्यग्य होता, बहुत बहुत शुभकामनाएं-- क्षमा प्रार्थना सहित!     

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