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मनाना तो चाहता हूँ ईद

मगर बंद है

मेरे दिल के दरवाज़े

और ईद का चाँद

मुझे दिखाई नहीं पड़ता

 

दिवाली,दशहरा कैसे मनाऊँ

मेरे अन्दर का रावण

नहीं मरता मुझसे

 

बापू की जयंती है

पर मै

उनसे भी शर्मिंदा हूँ  

मेरे अन्दर हिंसा है

लालच है

मै नहीं मिला पाता

अपनी नज़रें

उनकी तस्वीर से

 

जिन शहीदों ने

जान तक दे दी

हमारी आज़ादी के लिए

हमने उनका सब कुछ लूट लिया

और लूटा भी दिया

 

लोगों की

उदास बेचैन और लाचार आँखें

मुझे घूरती है

मै सबसे नज़रें चुराता हूँ

अपने आप को

कमरे में बंद कर लेना चाहता  हूँ  

मुझमें हिम्मत नहीं

उनसे आँखें मिलने की

न ही हिम्मत है

ईद, दिवाली या जयंती मनाने की

क्योंकि मै शर्मिंदा हूँ

मैंने आज़ादी के अर्थ

ईद के पैगाम

और दिवाली के महत्व को

समझा ही नहीं ।

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Comment

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Comment by Rahila on February 9, 2016 at 11:43am
आदरणीय नादिर साहब!बेहद अच्छी रचना लगी । लेखन बेहद सरल और सशक्त भाव से हुआ । जो रचना की सबसे बड़ी खूबी है ।सादर
Comment by नादिर ख़ान on October 9, 2012 at 4:50pm

बहुत शुक्रिया राज भाई 

Comment by राज़ नवादवी on October 8, 2012 at 8:16pm

नादिर भाई साहेब, बहुत खूब लिखा है आपने, बड़ी सरलता और प्रवाह के साथ, शुरू से आखिर तक एक तारतम्य बना हुआ है, और ख्यालात के तो क्या कहने, लाजवाब! बधाई हो!

Comment by नादिर ख़ान on September 30, 2012 at 7:48pm

राजेश कुमारी जी  बहुत शुक्रिया आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 30, 2012 at 7:33pm

आत्म ग्लानी के भाव बहुत खूबसूरती से उकेरे हैं आपने रचना  के माध्यम से काश सभी के दिल में ये भाव आयें और देश के लिए कुछ सार्थक कदम उठायें नव जाग्रति आये बहुत बढ़िया प्रस्तुति 

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