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नम आँखें...
आँखों में इंतज़ार...
कभी घड़ी को तकती...
तो कभी दरवाज़े की चौखट को...
और कभी थाली में सजी रेशम की डोर को...
उसमें सजे मोतियों की चमक में दिखता तेरा मुस्कुराता चेहरा...
और खो जाती मैं उस सुन्हेरे बचपन में...
जहाँ हर पल तेरा मुझे छेड़ना...
मुझे चिढ़ाना और चोटी खींचना...
तब भी आंसू देता था और आज भी...

तेरा शैतानियाँ करना और मेरा उन्हें माँ से छुपाना...
मुझे कोई रुलाये तो तेरा ज्वालामुखी बन जाना...
वो पेड़ से अमरुद तोड़ना...
वो गन्नें के खेतों में चोरी करना...
वो कच्चे आम का अचार...
वो स्कूल ना जाने पर बाबा की मार...
सब हैं आज भी वैसे...
पर सिर्फ, यादों में...
बदले तो तुम, भईया...

पेट पालने हमारा... शहर जाना तुम्हारा...
और फिर मनीआर्डर तक ही सिमट जाना रिश्ता हमारा...
हर बरस राखी पर मेरा शाम तक,
यूँही तेरी राह तकना...
और फिर डाकिया चाचा का,
तुम्हारा बहानों भरा तार दे जाना...
बस,
अब यही तो बचा था राखी का त्यौहार, भईया...!!

::::जूली मुलानी::::
::::Julie Mulani::::

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Comment by Julie on September 23, 2010 at 7:46pm
शुक्रिया अपर्णा जी... दोस्त बनाने का और मेरी रचना को पसंद करने का...!! :-)
Comment by Julie on September 23, 2010 at 7:46pm
'बागी जी' बहुत बहुत शुक्रिया... आपकी वाह-वाही का...!! :-)
Comment by Aparna Bhatnagar on September 23, 2010 at 2:52pm
bhaav pradhan kavita hai Julie..

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2010 at 10:04am
अच्छी रचना है जुली जी, भाई बहन की पवित्र रिश्ता और उसपर यह खुबसूरत रचना वाह वाह करने पर मजबूर करती है |
Comment by Julie on September 23, 2010 at 12:09am
शुक्रिया नवीन जी...!! :-)

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