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देश के हर इंसान में शंकर देखा है

22 22 22 22 22 2
आंखों में आबाद समंदर देखा है ।
हाँ मैंने उल्फ़त का मंजर देखा है ।।

कुछ चाहत में जलते हैं सब रोज यहां ।
चाँद जला तो जलता अम्बर देखा है ।।

आज अना से हार गया कोई पोरस ।
तुझमें पलता एक सिकन्दर देखा है ।।

एक तबस्सुम बदल गई फरमान मेरा ।
मैंने तेरे साथ मुकद्दर देखा है ।।

कुछ दिन से रहता है वह उलझा उलझा ।
शायद उसने मन के अंदर देखा है ।।

बिन बरसे क्यूँ बादल सारे गुज़र गए ।
मैंने उसकी जमीं को बंजर देखा है ।।

हो जाते जज़्बात बयां सब बातों से ।
नाम उसी का लब पर अक्सर देखा है ।।

खूब दुआएं जो देते थे जीने की ।
आज उन्हीं हाथों में ख़ंजर देखा है ।।

मीरा और सुकरात पे ही मौक़ूफ़ नहीं ।
देश के हर इंसान में शंकर देखा है ।।

लाचारी का हाल न पूछो अब मुझसे ।।
तेरी खातिर सब कुछ खोकर देखा है ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 28, 2017 at 6:36pm
हार्दिक बधाई ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on November 27, 2017 at 4:03pm
बहुत बहुत आभार सर । दो गज़ल हो गई सर अभी दो बाकी हैं ।
Comment by Samar kabeer on November 27, 2017 at 2:02pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

तीसरे शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,क्या कहना चाहते हैं ?
चौथे शैर में 'तबस्सुम'शब्द स्त्रीलिंग है, और दोनों मिसरों में रब्त नहीं है ।
'मीरा और सुक़रात नहीं बस ज़ह्र पिए'
इस मिसरे में शिल्प कमज़ोर है,इसे यूँ कर सकते हैं:-
'मीरा और सुक़रात पे ही मौक़ूफ़ नहीं'
आख़री शैर में शुतरगुर्बा दोष है ।
एक ग़ज़ल तो ये हो गई,बाक़ी तीन कौन सी हैं?
Comment by Mohammed Arif on November 26, 2017 at 6:28pm
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,
बेहतरीन ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on November 26, 2017 at 1:21pm
आ0 कबीर सर मेरी 4 ग़ज़लों पर आपकी कीमती सलाह बाकी है ।

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