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अखियाँ ढूंढें अपना गाँव ...

अखियाँ ढूंढें अपना गाँव ...

दूर दूर तक
काली सड़कें
न पीपल न छाँव
अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

नीला अम्बर
पड़ गया काला
अब धरा पे फैला धुंआ
अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

कंक्ट्रीट के
जंगल फैले
अब दिखता नहीं कुआं
अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

हल-बैल का
अब युग बीता
ट्रैक्टर हुआ जवां
अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

सांझ के खेले
ढपली मेले
खो गए जाने कहाँ
अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

दूर दूर के
गाँव आते
सुख दुःख होता जहां
अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

पेड़ तले
पंचायत नहीं अब
गया गुड़ गुड़ हुक्का कहां
अखियाँ  ढूंढें  अपना  गाँव

घूंघट वाली
गोरी अब न
और न बाजैं पैंजैनियां
अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

नयी सभ्यता की
चकाचौंध में
खो गया मेरा गाँव
अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on May 9, 2016 at 7:47pm

आदरणीय  सतविन्द्र कुमार जी  प्रस्तुति के भावों को मान देने के लिए आपके तहे दिल से शुक्रिया।

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on May 7, 2016 at 11:16pm
बेहतरीन प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय।
Comment by Sushil Sarna on May 7, 2016 at 12:05pm
आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब प्रस्तुति आपके स्नेह के अलंकरण से धन्य हुई। आपकी स्नेहाशीष का दिल से शुक्रिया।
Comment by Sushil Sarna on May 7, 2016 at 12:03pm
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति के भावों को मान देने के लिए आपके तहे दिल से शुक्रिया।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 7, 2016 at 10:35am

गाँवों को भी नागर सभ्यता डस रही है और कवी को उस पुरानेगांव का तलाश है , अच्छी प्रस्तुति . . 

Comment by Samar kabeer on May 6, 2016 at 10:47pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,"कांक्रीट का जंगल"ने बहुत देर तक बांधे रखा,वाह क्या कहने इस प्रस्तुति के,मज़ा आगया,ढेरों बधाई स्वीकार करें ।

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