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मोह के धागे / कहानी / कान्ता राॅय

घर से बहुत दूर निकल आई थी । जाने क्या उद्वेग था कि छोड़ आई पल भर में सब कुछ । पिछले कई सालों से मन बडा उद्विग्न था । जतन करके संभाल रखा  था  लेकिन बाढ़ का पानी ,  सुनता है क्या कभी किसी घाट या  तटबंध को ! सो वेग ना सम्भल सकी , टूट गई । आते वक्त , घर से चार कदम दूर ही निकली थी कि आॅटो मिल गया ।
ऐसा लगा जैसे वह मेरा इंतज़ार ही कर रहा था ।

" स्टेशन चलोगे ? "

" बैठिये "

" कितना लोगे ? "

" १६० रूपये "

" क्या ,मीटर से नहीं चलोगे ? "
गृहणी ना जाने कब हावी हो चुकी थी  । तोल - मोल करना जैसे खून में समा चुका था ।  याद आया कि  पति बहुत चिढ़ जाते है मेरी इस आदत से अक्सर , लेकिन मै भी क्या करूं ,आदतन मजबूर थी । हँसी तैर गई चेहरे पर ।

" रहने दो बहन जी  , मै नहीं जा रहा ।  कोई दुसरा आॅटो देख ले  "

" अरे ,नहीं भाई ,चलो ,मै तो ट्राई कर रही थी कि कहीं तुम सच में कुछ कम कर ही दो  " मै मुस्कुरा उठी ।

" आप भी ना मैम , " सुनकर वह भी मुस्कुरा उठा ।
पल भर में लगा कि यह मुझे पहचानता है । मेरे जैसे कितने आते होंगे । चढते ,  बैठते ,उतरते होंगे ।उसका क्या है !
लेकिन सब तो मेरे जैसे नहीं आते होंगे ! सोचती हुई पल भर को भूल बैठी कि मै घर छोड़ कर जा रही थी हमेशा के लिए ।

कोई नहीं था घर में ।  ताला लगा कर पडोस में चाभी देकर  आई थी । पूछा था पडोसन ने कि " कहीं बाहर जा रही है आप ? "

" हाँ , दो दिन के लिए जा रही हूँ । ये शाम को आयेंगे तो आप चाभी दे दीजियेगा । " नजरें चुराते हुए कह कर जल्द ही पलट गई थी । डर था कि वे भी अपने स्त्रियोचित आचरण से मजबूर होकर और ना कुछ पूछ बैठे । तन्द्रा टूटी जब आॅटोवाले ने  कहा कि ,

" मैडम ,आप यहीं की है या बाहर गाँव से आई है ? "

" यहीं की हूँ , मेरा घर है यहाँ " इसको क्या जरूरत जानने की , कि मै कहाँ की हूँ । हूँ ह !

" अभी बाहर जा रही हूँ कुछ दिनों के लिये । "
क्यों नहीं बता पाई इसे कि मै हमेशा के लिए जा रही हूँ ? क्या मुझे नहीं जाना था ? क्या मेरा मन और दिमाग दोनों एक दुसरे से विपरीत चल रहे है ?
आॅटो सरपट दौड़ रही थी सड़क पर स्टेशन की ओर । जाने क्यों ये ओवरब्रिज , ये सब्जी मार्केट , सब मुझे छुटता हुआ नजर आ रहा था ।
क्यों ऐसा लग रहा था कि मै , इन सबको फिर कभी नहीं देख पाऊँगी ! ओह ! ये आँसू किसलिए ?
पर्स से रूमाल निकालते वक्त मेरी नजर सामने लगी शीशे पर पड़ी , तो चौंक उठी ।
आॅटो वाला बार - बार मुझे घूरे जा रहा था । " क्यों इस तरह देख रहा है मुझे ? " मैने जल्दी से रूमाल निकाल अपने आँसुओं को पोंछ , मनोभाव को संयत कर , मुस्कुरा कर , सहज दिखने की ,  नाकाम कोशिश की । अचानक वो संजीदा हो उठा । अब नहीं मुस्कुरा रहा था । उसकी आँखें मेरी दुखों को जैसे ताड़ गई थी । मै अब आॅटो में बैठी बेचैन हो उठी । स्वंय को उघाड़ना मुझे कतई पसंद नहीं । मेरे मन को तो पिछले पच्चीस सालों में पति भी नहीं जान पाये थे ।
फिर तो ये एक अनजान आॅटोवाला ठहरा । इसकी हैसियत कहाँ इतनी कि मुझे जान लें !
मेरी नजर फिर उससे टकराई । वह अब भी सामने लगे आईने में मुझे चोरी - चोरी देखने की कोशिश कर रहा था । शायद मेरा नागवार लगना ,उसके देखने को , वो समझ चुका था ।
बाहर की तरफ देखने लगी । पंक्तिबद्ध फूलों की दुकान  पर नजर पड़ते ही भरोसा हुआ कि अब स्टेशन आने ही वाला है ।

घर पर रात का खाना भी बना कर आई थी । बेटा काॅलेज से आकर शायद मुझे नहीं ढूंढेगा । वो तो खाना खाकर तुरंत कोचिंग क्लासेज़ के लिए निकल जायेगा ।
शाम को पति आयेंगे और फ्रेश होकर वाॅक पर निकल जायेंगे । जाने कब इनको मेरी जरूरत पड़े , या नहीं भी पड़े !
लेकिन मै तो अब जा रही हूँ , सब कुछ छोड़ कर , तो मै क्यों सोच रही हूँ उनके लिए कि मेरी जरूरत पडेगी उनको या नहीं !
क्या मेरे ना रहने से , मेरी कमी से  जो उनको दुख होगा , यह एहसास सुखदायी होगा मेरे लिए ? नहीं ,
ये मुझे सुख नहीं देगा । तब तो मेरी तकलीफ़ बढ़ जायेगी । ऐसे में तो मेरा जाना मुश्किल ही नहीं ,नामुमकिन हो जायेगा ।
अचानक धचके के साथ आॅटो रूक गई । स्टेशन आ चुका था । जितनी दृढ़ता से मै इस आॅटो पर बैठी थी , उसके विपरीत बहुत ही कमजोर मनोबल के साथ ,  मै अब उतर रही थी । मन भरा हुआ था । मैने अपना पर्स संभाला । उसने लगेज निकाल कर सामने रख दिया । पर्स में से मैने रूपये गिन कर १६० उसकी तरफ बढाये ।

" नहीं मैम , १०० रूपये ही दीजिये आप  "

" क्यों , तुम तो १६० कह रहे थे ? "

" नहीं ,आप सिर्फ १०० रूपये ही दीजिये "
इस अपनेपन से मेरा मन भीग गया ।वह  भी जरा मन से जरा भीगा हुआ लगा मुझे । मैने १०० का नोट उसकी तरफ बढ़ा जैसे ही उसके चेहरे की  तरफ देखी तो वो मेरी ही तरफ एकटक देखे जा रहा था , मानों मेरे चेहरे की समस्त रेखाओं को जान गया था ।उसके इस तरह देखने से  मै अकचका गई ।

" क्या देख रहे हो तुम ? " पूछ बैठी मै ।

" मैम , ये मेरा नम्बर है । आप रख लो । कभी जरूरत पड़े तो इस भाई को याद कर लेना " कहते हुए उसने अपना कार्ड निकाल कर दिया तो मै भौंचक्की रह गई । आॅटोवाले के पास भी उसका अपना " विजिटिंग कार्ड " !
कार्ड को पढते हुए चौंक उठी । ये तो पेशेवर वकील है !

" तुम तो वकील हो ,फिर यह आॅटो ? "

" अरे मैम , जब वकालत नहीं चलती है तब यही अपना रोजगार होता है "

मै अब उससे बेहद प्रभावित थी । एक कर्मवीर आॅटो वाला , वकील के रूप में मुझे  बहन सम्बोधित  कर रहा था ।

" मैम ,कोई भी मदद लगे तो बिना संकोच के  बताईयेगा , प्लीज़  ! " मदद की दरकार मुझे तो थी लेकिन स्वाभिमान गवारा नहीं करता है किसी मदद को ,इसलिए ,
" हाँ ,जरूर , मै फोन करूँगी तुमको  "  हामी भर , लगेज सम्भाल आगे बढ़ गई । सामने काऊँटर देख सोचने लगी ,
" किस गाड़ी की टिकट लूँ ?  कहाँ जाऊँ ? " ढेरों सवाल मुंह बाये खड़े थे । एक बारगी पैर थरथरा उठे । कुछ देर के लिए सामने बैंच पर बैठ गई ।

पति के साथ हुए उस झगड़े का असर अब भी हावी था । गुस्से में ही सही , मेरा नाम उस शर्मा के साथ जोडने से पहले एक बार भी नहीं सोचा उन्होंने ।
नहीं , ऐसा अक्सर कर बैठते है और बाद में "  ऐसा तो नहीं कहा मैने , तुमने गलत अर्थ लगा लिया " कह कर हमेशा कन्नी काट लेते है । इस बार जो हो सो हो , मै अब बरदास्त नहीं कर सकती हूँ । अकेले रह लूंगी । कोई काम ढूंढ लूंगी । कुछ नहीं तो , खाना बनाने का काम ही सही , लेकिन अपने  सम्मान को रौंदने का अधिकार पति को भी नहीं दे सकती हूँ । झगड़े के वक्त कि कसैली बातें ,दिल में काँटे सी चुभन देे जाते  है ।
वे भले ही भूल जाते हों ,लेकिन मुझे याद रहती है और दिनों दिन  सालती रहती है । उम्र के इस पडाव में अब  कैसे ,कहाँ...... ?
अचानक सामने कथरी ओढ़कर कोने में लेटी हुई औरत पर नजर पड़ी । उसके पास ही एक मैली कुचैली सी  गठरी रखी है , शायद यही उसकी पूरी गृहस्थी होगी । स्टील की एक डोलची , उसके भिखमंगी होने को इशारा कर रही  थी  । उसे देख कर सहसा  कुछ याद आ गया । पिछले दिनों पेपर में खबर पढी थी कि एक औरत अर्धविक्षिप्त सी स्टेशन एरिया में घूमती रहती है । रिक्शे वाले से लेकर , ट्रक वाले तक , उसे उठा कर ले जाते है और कहाँ - कहाँ से घुमाकर , फिर यहीं छोड़ जाते है । कहीं ये वही तो नहीं ?
मन सिहर उठा एकाएक । यह  औरत , जाने कैसे  बेघर हुई होगी ? निकाल दी गई होगी , पति या पिता के घर से ,या स्वंय मेरी तरह ........!
हठात् मन काँप उठा । हथेलियां पसीने से गीली हो उठी । एकदम से गला सूख आया ।  बहुत तेज प्यास लगी । स्टेशन से बाहर आ गई ।

" अरे , तुम अभी तक यहीं हो  ? "

" जी , सवारी का इंतज़ार कर रहा था "

" चलो अब , तुम्हारी सवारी आ गई , वापस घर जाना है । अब आज कहीं नहीं जाती  " 
उसने मेरा सामान रख ,मुस्कुराते हुए आॅटो स्टार्ट किया ।

" एक बात बताऊँ आपको ? "

" क्या ? "

" मै जानता था कि आप वापस आओगी ,इसलिए आपका ही इंतज़ार कर रहा था "

" अच्छा ! " अब मै भी मुस्कुरा उठी ।

" जी ! "

" सही कह रहे हो तुम , घर छोडना जिंदगी छोडने जैसा ही होता है , आज मैने यह महसूस किया है ।"
घर लौट कर राहत हुई कि ताला पूर्ववत लटका हुआ था । पडोसी से चाभी लेकर अंदर सामान रख , आॅटो वाले को सौ रूपये देते हुए कहा " तुम परसों आना मेरे यहाँ "

" कहीं जाना है ? "

" अरे ,कहीं नहीं , परसों रक्षाबंधन है ना !  "

मौलिक और अप्रकाशि

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Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:42am

आदरणीया  प्रतिभा  जी  ,आपको  कथा  का अच्छा  लगना  मेरा  लिखने  को  सार्थक कर  गया  , अभिभूत हूँ आपकी  प्रतिक्रया  से  .आभार  आपको 

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:40am

आदरणीय सतविंदर  जी  , विषय  को  समझते  हुए    आपकी  प्रतिक्रया  एकदम  सटीक  होती  है . और  आपके   एक  सच्चे  लेखक होने परिलक्षित  भी  करती  है . आभार  आपको इस  सुन्दर  प्रतिक्रया  के  लिए    

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:37am

जी ,  बिलकुल  सही  पकड़ा  है  आपने  आदरणीय शहजाद  जी  आपने  कि  ये  कहानी  एक  पूरे  क्षण  -विशेष  में  कही  गयी  है इसलिए  इसको  लघुकथा के  करीब  की  कहानी  माना    जा  सकता  है , और  बाकायदा   यहाँ एक  सन्देश भी रोपित  हुआ है , लेकिन  मैं  लम्बी  होने  के  कारण  ही  इसे कहानी  का  दर्ज़ा  देती  हूँ  . 

बहुत  पैनी  नज़र  रखते  है  आप  लेखन  के  तकनीकों  पर  जो  मुझे  बेहद  प्रिय  है . ऐसे   ही  रचनाओं  पर  अपना  मत  विस्तार  से  रखते  रहिये  क्योकिं    आपकी  यही  नजरिया  आगे  भी  आपके  लेखन  को  पुष्ट  करेंगी . सादर  .

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:31am

लेखक  होने  के  साथ  -साथ  आप  एक  बेहतरीन  पाठक  भी  है  आदरणीया  नीता  सैनी  जी  , कहानी  का  आपको  पसंद  आना  मेरे  लिए  मेरा  मनोबल  को  बढ़ा  गया  . आभार  आपको  ह्रदय  से  

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:29am

आको  कहानी  पसंद  आई  मेरे  लिए  हर्ष  का  विषय है  आदरणीया  जानकी  जी ,आभार  आपको 

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:27am

आदरणीया नीता  जी , आप  बहुत  ही  गहनता  से  कथाओं के  भाव  को  समझा  करती  है  जो  मुझे  बेहद  पसंद  है  और  रचनाकारों  की  लेखनी  को  आपकी  प्रतिक्रया  संबल  देती  हुई  प्रतीत  होती  है  . हरिदर  से  आभार  आपको 

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:25am

आदरणीय सुनील  जी  कहानी  के  परिप्रेक्ष्य में  प्रस्तुत  कहानी  छोटी  कहानियों  में  ही  शुमार  करती  है  , हालांकि हम  सब  लघुकथाकार  है  इसलिए  हम  सबको  300 शब्द से आगे  बढती हुई  कथाएं  बड़ी  होने  जैसी लग  ही  जाती  है  ....हा हा  हा  हा  ...आभार  आपको .   

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:22am

नारी मन  की  कथा  नारी को  पसंद  आना  ...आदरणीया  राहिला  जी .कहानी  पर  आपकी  प्रतिक्रया मन  को  विभोर  कर  गयी  . आभार 

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:20am

कहानी  पसंद  करने  के  लिए  आभार  आपको  आदरणीय  शहजाद  जी 

Comment by pratibha pande on February 22, 2016 at 1:08pm

कथा दिल को अलग अलग आयामों पर छूती रही ,एक कसक भी कि क्या  हासिल है इन बंधनों का ,और अंत में ना चाहते हुए भी एक राहत की सांस ,  हार्दिक बधाई लीजिये इस कथा पर आदरणीया कांता जी 

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