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जब हकीक़त सामने है क्यों फ़साने पर लिखूँ
ये है बेहतर, दर्द में डूबे ज़माने पर लिखूँ

खेत पर, खलिहान पर, मैं भूख-रोटी पर लिखूँ
बंद होते जा रहे हर कारखाने पर लिखूँ

फूल, भँवरे और तितली की कहानी छोड़कर
आदमी के हर उजड़ते आशियाने पर लिखूँ

ख़त्म होते जा रहे रिश्तों के आँसू पर लिखूँ
आदमी को रौंदकर पैसे कमाने पर लिखूँ

याद तुमको क्यों करूँ मैं, और क्यों करता रहूँ
इक कहानी अब मैं तुमको भूल जाने पर लिखूँ

जिसकी सूरत रात-दिन अब है बिगड़ती जा रही
मैं उसी धरती को अब फिर से सजाने पर लिखूँ

बस्तियों में आम लोगों की गरीबी देखकर
कुछ घरों में क़ैद मैं सबके ख़ज़ाने पर पर लिखूँ

सोचता हूँ, तेरे जाने का कोई न ज़िक्र हो
एक दिन एक गीत तेरे लौट आने पर लिखूँ

"मौलिक व अप्रकाशित"

- डॉ. राकेश जोशी

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Comment by Dr. Rakesh Joshi on January 8, 2016 at 10:11pm

आदरणीय मनोज जी,

सादर नमस्कार.

मुझे भी आपको यहाँ देखकर ख़ुशी हुई.

मैं आपका आभारी हूँ.

सादर,

डॉ. राकेश जोशी

Comment by Dr. Rakesh Joshi on January 8, 2016 at 10:10pm

आदरणीय  Ravi Shukla जी,

सादर नमस्कार.

मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.

मैं आपका आभारी हूँ.

सादर,

डॉ. राकेश जोशी

Comment by मनोज अहसास on January 8, 2016 at 8:52pm
आपको यहाँ देखकर ख़ुशी हुई
स्वागत है सर
सादर
Comment by Ravi Shukla on January 8, 2016 at 5:09pm

आदरणीय डा राकेश जी आपकी ग़ज़ल पहली बार पढ़ने का सौभाग्‍य मिला है बहुत बहुत बधाई स्‍वीकार करें । बाकी बात विद्वत जन कह ही चुके है । सादर

Comment by Dr. Rakesh Joshi on January 7, 2016 at 11:22pm
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी,
सादर नमस्कार.
मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.
मैं आपका आभारी हूँ.
सादर,
Comment by Dr. Rakesh Joshi on January 7, 2016 at 11:22pm
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी,
सादर नमस्कार.
मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.
मैं आपका आभारी हूँ.
सादर,

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2016 at 10:55pm

 आदरणीय राकेश जोशी जी, इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई निवेदित है. एक निवेदन है कि मंच पर ग़ज़ल प्रस्तुत करने के साथ ग़ज़ल की बह्र या वज़्न लिखने की परिपाटी रही है, जिसका अनुशासन की सीमा तक पालन किया जाता है. इसलिए निवेदन है कि ग़ज़ल की बह्र या वज़्न अवश्य लिख दें. इससे पाठक के लिए भी प्रस्तुति का आनंद दुगुना हो जाता है और प्रस्तुति को समझने में भी सहजता होती है. 

इस मंच की सीखने-सिखाने की परंपरा के अनुक्रम में एक निवेदन और है कि आदरणीय समर कबीर जी की बात पर अवश्य गौर कीजियेगा. सादर 

Comment by Dr. Rakesh Joshi on January 7, 2016 at 9:59pm

आदरणीय समर कबीर जी,

सादर नमस्कार.

मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.

मैं आपका आभारी हूँ.

सादर,

डॉ. राकेश जोशी

Comment by Dr. Rakesh Joshi on January 7, 2016 at 9:58pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी,

सादर नमस्कार.

मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.

मैं आपका आभारी हूँ.

सादर,

डॉ. राकेश जोशी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 7, 2016 at 9:08pm

आदरणीय दा. राकेश भाई , इस बेहतरीन गज़ल के लिये आपको दिली मुबारक बाद ।

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